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[ कर्मप्रकृति
गाथार्थ - आदि के तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व निश्चित रूप से होता है, उसके आगे आठ गुणस्थानों में वह भजनीय है। सास्वादन में सम्यक्त्वमोहनीय नियम से है और शेष दस में भजनीय है।
विशेषार्थ - मिथ्यादृष्टि सास्वादन और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) रूप आदि के तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व नियम से अवश्य विद्यमान रहता है, किन्तु शेष में अर्थात् चौथे गुणस्थान से लेकर उपशांतमोह पर्यन्त आठ गुणस्थानों में उसका अस्तित्व भाज्य है। वह इस प्रकार समझना चाहिये - अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के द्वारा उसका क्षय कर दिये जाने तक उसका अस्तित्व रहता हे और क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में उसका अवश्य अभाव है।
'आसाणे सम्मत्तं' इत्यादि अर्थात आसादन यानि सास्वादन गुणस्थान में सम्यक्त्वमोहनीय नियम से रहता है। किन्तु दस गुणस्थानों में अर्थात् मिथ्यादृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान पर्यन्त उसका अस्तित्व भाज्य है अर्थात् कभी रहता है और कभी नहीं रहता है। उसे इस प्रकार समझना चाहिये कि मिथ्यादृष्टि अभव्य में सम्यक्त्वमोहनीय नहीं पाया जाता है, भव्य में भी कदाचित् रहता है और कदाचित् नहीं रहता है तथा सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व प्रकृति के उद्वलन होने पर भी कुछ काल तक रहता है, इसलिए वहां पर भी वह भाज्य है। किन्तु अविरल आदि क्षपकों में नहीं रहता है, परन्तु उपशामकों में रहता है, अतः वहां पर भी भाज्य है। तथा –
बिइय तईएसु मिस्सं, नियमा ठाणनवगम्मि - भयणिजं।
संजोयणा उ नियमा, दुसु पंचसु होइ भइयव्वं ॥५॥ शब्दार्थ – बिइय तईएस - द्वितीय तृतीय गुणस्थान में, मिस्सं - मिश्रमोहनीय, नियमा – नियम से, ठाण नवगम्मि – नौ गुणस्थानों में, भयणिजं - भजनीय, संजोयणा - संयोजना – कषाय, उ – और, नियमा – नियम से, दुसु – दो में, पंचसु – पांच में, होइ - होता है, भइयव्वं – भजितव्य (भजनीय)।
गाथार्थ – द्वितीय और तृतीय गुणस्थान में मिश्रमोहनीय नियम से होता है और शेष नौ गुणस्थानों में भजनीय है। संयोजना कषाय आदि के दो गुणस्थानों में नियम से है और आगे के पांच गुणस्थानों में भजनीय है। ..
विशेषार्थ – दूसरे और तीसरे गुणस्थान में मिश्रमोहनीय अर्थात् सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व नियम से रहता है क्योंकि सास्वादन गुणस्थान वाला नियम से मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला ही होता है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्व के बिना नहीं होता है।