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[ कर्मप्रकृति
संक्लिष्ट परिणामी होकर काल करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ और वहां अन्तर्मुहूर्त रहने के बाद असंज्ञियों में उत्पन्न हुआ। देव मरकर असंज्ञियों में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिये यहां एकेन्द्रियों को ग्रहण किया गया है। तत्पश्चात् असंज्ञी भव से अल्पकाल में ही मरण करके नारक हुआ और सर्व पर्याप्तियों से शीघ्र पर्याप्त हुआ, ऐसे उस सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त नारक के नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है। पर्याप्त जीव के बहुत प्रकृतियां विपाकोदय को प्राप्त होती हैं और उदयगत प्रकृतियां स्तिबुकसंक्रमण से संक्रांत नहीं होती हैं। इसलिये अन्य प्रकृतियों के दलिकों का संक्रम नहीं होने से जघन्य प्रदेशोदय प्राप्त होता है। इसलिये सर्व पर्याप्त यह पद दिया है।
चारों ही आनुपूर्वी गतितुल्य हैं, अर्थात् इनके जघन्य प्रदेशोदय का स्वामित्व अपनी अपनी गति के समान जानना चाहिये। लेकिन इतना विशेष है कि भव के आदि में अर्थात् भव में उत्पन्न होने के प्रथम समय में आनुपूर्वियों का जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये। क्योंकि तीसरे समय में बंधावलिका के व्यतीत हो जाने पर अन्य भी कर्मलतायें उदय में आने लगती हैं। इसलिये यहां पर भव के प्रथम समय को ग्रहण किया गया है तथा –
देवगई ओहिसमा, नवरिं उज्जोयवेयगो ताहे।
आहार (रि) जाइ अइचिर-संजममणुपालिऊणंते॥ ३१॥ शब्दार्थ – देवगईओहिसमा – देवगति का अवधि के समान, नवरिं - विशेष, उज्जोयवेयगो – उद्योतवेदक के, ताहे – वहां, आहारिजाइ – आहारकशरीर को उत्पन्न करने वाले के, अइचिर – अतिचिरकाल, संजममणुपालिऊणंते – संयम का अनुपालन कर अंत में।
गाथार्थ – देवगति का जघन्य प्रदेशोदय अवधिज्ञानावरण के समान है। विशेष यह है कि जब उद्योत का वेदक होता है, तब जानना चाहिये। चिरकाल तक संयम का अनुपालन कर अंत में आहारकशरीर को उत्पन्न करने वाले के आहारकसप्तक का जघन्य प्रदेशोदय होता है।
विशेषार्थ – देवगति अवधि समान है, अर्थात् अवधिज्ञानावरण के समान देवगति का भी जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये। विशेष यह है कि जब वह उद्योत नाम का वेदक हो तब उसे देवगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है।
प्रश्न – इस का क्या कारण है ?
उत्तर – जब तक उद्योत का उदय नहीं होता है, तब तक देवगति में स्तिबुकसंक्रमण से उसे संक्रांत करता है, इसलिये उद्योतवेदक पद का ग्रहण किया गया है और उद्योत का वेदकत्व पर्याप्त जीव