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उपशमनाकरण ।
[ ३१५ यहां निवृत्ति पद का ग्रहण अंतिम सीमा बतलाने के लिये समझना चाहिये। इसलिये यह अर्थ होता है - सभी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, नारक, देव और मनुष्य यथासंभव अपूर्वकरण के अंत तक सभी कर्मों की देशोपशमना के स्वामी जानना चाहिये। अब इसका विचार करते हैं -
दसणमोहाणंता-णुबंधिणं सगनियट्टिओ णुप्पिं।
जा उवसमे चउद्धा, मूलुत्तरणाइसंताओ॥६८॥ शब्दार्थ – दसणमोहाणंताणुबंधिणं - दशैनमोहनीय और अनंतानुबंधी की, सगनियट्टिओ णुप्पिं - अपने अपने अपूर्वकरण से आगे, जा - यह, उवसमे - उपशमना, चउद्धा - चार प्रकार की, मूलुत्तरणाइसंताओ – मूल उत्तर और अनादि प्रकृतियों की सत्ता वाली।
गाथार्थ - दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबंधी की अपने अपने अपूर्वकरण से आगे देशोपशमना नहीं होती है। मूल प्रकृति, उत्तर प्रकृति और अनादि सत्ता वाली प्रकृतियों की यह देशोपशमना चार प्रकार की है।
विशेषार्थ – दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबंधी कषायों की अपने अपने अपूर्वकरण से परे देशोपशमना नहीं होती है। जिसका आशय यह है कि दर्शनमोहनीयत्रिक की देशोपशमना क्षपक अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत अथवा सर्वविरत तथा उपशमक विरत अपने अपूर्वकरण के अंतिम समय तक करते हैं तथा अनंतानुबंधी कषायों की विसंयोजना के समय चारों गतियों के जीव अपने अपूर्वकरण के अंतिम समय तक देशोपशमना करते हैं, उससे आगे नहीं करते हैं।
इनके अतिरिक्त शेष रही चारित्रमोहनीय प्रकृतियों की उपशमना में या क्षपण में अपूर्वकरण गुणस्थान के चरम समय तक देशोपशमना नहीं होती है।
इस प्रकार की मोहनीय की प्रकृतियों की देशोपशमना का विधान है। मोहनीय के सिवाय शेष ज्ञानावरणादि कर्मों की प्रकृतियों की सर्वोपशमना नहीं होती है, किन्तु देशोपशमना ही होती है और वह अपूर्वकरण गुणस्थान तक जानना चाहिये।
___अब प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा करते हैं – जो मूल प्रकृतियां अथवा अनादि सत्ता वाली उत्तर प्रकृतियां हैं, वे उपशम में देशोपशमना की अपेक्षा चार प्रकार की हैं, यथा - सादि, ननादि, ध्रुव और अध्रुव। आठों ही मूल प्रकृतियां चारों प्रकार की होती हैं। वे इस प्रकार समझना राहिये - अपूर्वकरण गुणस्थान से परे जाकर पतित होने वाले जीवों के प्रवर्तमान वह देशोपशमना