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उपशमनाकरण ]
[ ३१९ देशोपशमना करता है। शेष प्रकृतियां जो उद्वलना योग्य हैं ऐसी वैक्रियसप्तक देवद्विक, नरकद्विक, मनुष्यद्विक और उच्च गोत्र इनकी जघन्य देशोपशमना एकेन्द्रिय जीव ही करता है। इनके सिवाय अन्य सभी प्रकृतियों की जघन्य देशोपशमना अपूर्वकरण के चरम समय में वर्तमान जीव करता है। अनुभाग और प्रदेश - देशोपशमना स्थिति - देशोपशमना के अनन्तर अब अनुभाग और प्रदेश देशोपशमना का कथन करते हैं -
अणुभागसंकमसमा, अणुभागुवसामणा नियट्टिम्मि।
संकमपएसतुल्ला, पएसुवसामणा चेत्थ ॥ ७१॥ शब्दार्थ – अणुभागसंकमसमा - अनुभागसंक्रम के समान, अणुभागुवसामणा - अनुभाग- देशोपशमना, नियट्टिम्मि – निवृत्तिकरण में, संकमपएसतुल्ला – प्रदेशसंक्रम के समान, पएसुवसामणा – प्रदेश - देशोपशमना, च - और, इत्थ – यहां पर।
गाथार्थ – यहां पर अनुभागसंक्रम के समान अनुभाग देशोपशमना निवृत्तिकरण (अपूर्वकरण) में और प्रदेशसंक्रम के तुल्य प्रदेश - देशोपशमना जानना चाहिये।
विशेषार्थ – अनुभागसंक्रम के समान अनुभाग - देशोपशमना कहना चाहिये। विशेष यह है कि यह निवृत्तिकरण अर्थात् अपूर्वकरण के चरम समय तक होती है। जिसका तात्पर्य यह है कि पहले जो जीव उत्कृष्ट अनुभाग-संक्रम का स्वामी बताया गया है वही उत्कृष्ट अनुभाग - देशोपशमना का भी स्वामी है। उनमें अशुभ प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि और शुभ प्रकृतियों का सम्यग्दृष्टि स्वामी है। उक्त स्वामित्व विषयक मंतव्य का स्पष्ट आशय है कि सातावेदनीय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट अनुभाग - संक्रम के स्वामी अपूर्वकरण गुणस्थान से परे भी होते हैं । किन्तु उत्कृष्ट अनुभाग - देशोपशमना के स्वामी उत्कृष्ट से भी अपूर्वकरण गुणस्थान के अंत तक ही जानना चाहिये। तीर्थंकरप्रकृति को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग - देशोपशमना अभवसिद्धिक प्रायोग्य जघन्यस्थिति में वर्तमान एकेन्द्रिय के जानना चाहिये।
प्रदेश - देशोपशमना प्रदेशसंक्रम के तुल्य जानना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि उत्कृष्ट प्रदेशोपशमना उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के समान है। विशेष यह है कि जिन कर्मों का अपूर्वकरण से परे भी उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम पाया जाता है, उनकी भी उत्कृष्ट प्रदेशोपशमना अपूर्वकरण गुणस्थान के चरम समय तक ही जानना चाहिये और जघन्य प्रदेशोपशमना जघन्य प्रदेशसंक्रम के ही समान है।
इस प्रकार उपशमनाकरण का विवेचन समाप्त हुआ।
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