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[ ३४१
उदयप्रकरण ]
विशेषार्थ – कोई क्षपितकर्मांश जीव संयम को प्राप्त हुआ और संयम प्राप्त करने के अनन्तर अवधिज्ञान और अवधिदर्शन को प्राप्त किया और अवधिज्ञान अवधिदर्शन को नहीं छोड़ते हुए मर कर देव हुआ और वहां अन्तर्मुहूर्त बीतने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । तब मिथ्यात्व के निमित्त से अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण की उत्कृष्ट स्थिति को बांधना प्रारम्भ किया और प्रभूत दलिकों की उद्वर्तना की । तत्पश्चात् एक आवलिका का अतिक्रमण करके अर्थात् बंधावलि के बीतने पर उस जीव के अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का जघन्य प्रदेशोदय होता है तथा वेयणियंतर सोगारउच्च ओहिव्व निद्दपयला य उक्कस्स ठिईबंधा पडिभग्ग पवेइया नवरं ॥ २३ ॥
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शब्दार्थ - वेयणियंतरसोगारउच्च - वेदनीय अन्तराय शोक, अरति, उच्च गोत्र, ओहिव्वअवधिज्ञानावरण के सदृश, निद्दपयला – निद्रा प्रचला, य और, उक्कस्स उत्कृष्ट, ठिईबंधास्थितिबंध के, पडिभग्गपवेइया - पतित और भोग करने वाले (वेदन करने वाले) के, नवरं विशेष |
गाथार्थ – वेदनीय, अन्तराय, शोक, अरति और उच्चगोत्र का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व अवधिज्ञानावरण के समान है । निद्रा और प्रचला का भी इसी प्रकार है । विशेष उत्कृष्ट स्थितिबंध से पतित और उनका वेदन करने वाले के जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
विशेषार्थ साता और असातावेदनीयद्विक का, पांचों अन्तरायों का शोक अरति और उच्चगोत्र का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व अवधिज्ञानावरण के समान जानना चाहिये । निद्रा प्रचला का भी जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व भी तथैव जानना । लेकिन यह विशेष है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध से प्रतिपतित और निद्रा, चला का अनुभव करने में संलग्न जीव के उनका जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये । क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिबंध अतिशय संक्लेशयुक्त जीव के होता है और अतिसंक्लेश में वर्तमान जीव के निद्रा का उदय संभव नहीं है। इसलिये गाथा में 'उक्कस्स ठिइबंध पडिभग्ग' उत्कृष्ट स्थितिबंध पद जीव के लिये दिया है तथा
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वरिसवरतिरियथावर-नीयं पि इ (य) मइसमं नवरि तिन्नि । निद्दानिद्दा इंदिय - पज्जत्ती पढमसमयम्मि ॥ २४॥ वरसवर वर्षवर नपुंसकवेद, तिरिय तिर्यंचगति, थावर
स्थावर,
शब्दार्थ नीयं - नीचगोत्र, पि
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भी, य और, मइसमं - मतिज्ञानावरण, नवरि - विशेष, तिन्नि – तीन, निद्दानिद्दा – निद्रानिद्रादि, इंदियपज्जती - इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त के, पढमसमयम्मि प्रथम समय
में ।
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