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उदयप्रकरण ]
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शब्दार्थ – बेइंदिय - द्वीन्द्रिय, थावरगो – स्थावर होकर, कम्मं काऊण – कर्मस्थिति करके, तस्समं - उसके तुल्य, खिप्पं – शीघ्र, आयावस्स – आतप का, उ – और, तव्वेइ - उसका वेदन करने वाला, पढमसमयम्मि – प्रथम समय में, वÈतो – वर्तता हुआ।
___ गाथार्थ – द्वीन्द्रिय जीव स्थावर होकर और उसके समान कर्मस्थिति करके शीघ्र शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होकर आतप के उदय वाला हुआ, तब उसके प्रथम समय में वर्तमान होकर आतप का उत्कृष्ट प्रदेशोदय करता है।
विशेषार्थ – कोई गुणितकर्माशिक पंचेन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि हुआ तब उसने सम्यक्त्व निमित्तक गुणश्रेणी को किया। तत्पश्चात् वह उस गुणश्रेणी से गिर कर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और मरकर द्वीन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। वहां द्वीन्द्रिय प्रायोग्य स्थिति को छोड़कर शेष सभी स्थिति का अपवर्तन किया। तत्पश्चात् वहां से भी मरकर एकेन्द्रिय हुआ, वहां पर एकेन्द्रियों के समान स्थिति को किया और शीघ्र ही शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुआ, तब आतप नामकर्म का वेदन करने वाले खर (बादर) पृथ्वीकायिक जीव के शरीरपर्याप्ति के अनंतर प्रथम समय में आतप नामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। एकेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रिय की स्थिति को शीघ्र ही अपने योग्य कर लेता है, किन्तु त्रीन्द्रिय आदि की स्थिति को अपने योग्य नहीं कर पाता, इसलिये गाथा में द्वीन्द्रिय पद का ग्रहण किया है।
इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामित्व का विचार किया गया। अब जघन्य प्रदेशोदय के स्वामित्व के अधिकार में प्रयोजनीय का संकेत करते हुए जघन्य प्रदेशादय - स्वामित्व का कथन प्रारम्भ करते हैं -
पगयं तु खवियकम्मे, जहन्न सामी जहन्नदेवठिइ। भिन्नमुहुत्ते सेसे मिच्छत्त - गतो अतिकिलिट्ठो ॥२०॥ कालगएगिंदियगो, पढमे समये व मइसुयावरणे ।
केवलदुग मणपज्जव चक्खु अचक्खुण आवरणा॥ २१॥ शब्दार्थ – पगयं – प्रकृत, तु - ही, खवियकम्मे - क्षपितकर्मांश, जहन्नसामी - जघन्य स्वामी, जहन्नदेवठिइ - जघन्य देवस्थिति वाला, भिन्नमुहुत्ते - अन्तर्मुहूर्त, सेसे - शेष रहने पर, मिच्छत्तगतो - मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ, अतिकिलिट्ठो - अतिसंक्लिष्ट।
कालगएगिंदियगो – काल करके एकेन्द्रियों में गया, पढमेसमये – प्रथम समय में, व – और, मइसुयावरणे - मतिश्रुतावरण, केवलदुग - केवलद्विक, मणपज्जव - मनःपर्यव, चक्खुचक्षुदर्शन, अचक्खुण – अचक्षुदर्शन, आवरणा - आवरणों।