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उदयप्रकरण ]
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द्वितीय समय में उससे विशेषहीन देता है और तृतीय समय में उससे भी विशेषहीन देता है । इस प्रकार आवलिका के चरम समय तक विशेषहीन विशेषहीन देता जाता है। तब आवलिका के चरम समय में उक्त सत्रह प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय पाया जाता है तथा –
चउरुवसमित्तु पच्छा, संजोइय दीहकालसम्मत्ता।
मिच्छत्तगए आवलि - गाए संजोयणाणं तु॥२६॥ शब्दार्थ – चउरुवसमित्तु - चार बार मोहनीय को उपशमा कर, पच्छा – पश्चात्, संजोइय – अनन्तानुबंधी बांधकर, दीहकालसम्मत्ता – दीर्घकाल तक सम्यक्त्वी रहकर, मिच्छत्तगएमिथ्यात्व में गये हुये, आवलिगाए - आवलिका के अन्त में, संजोयणाणं - अनन्तानुबंधी, कषायों
का।
गाथार्थ – चार बार मोहनीय को उपशमा कर पश्चात् अनन्तानुबंधी कषायों को बांधकर दीर्घकाल तक सम्यक्त्वी रहकर मिथ्यात्व में गये हुये जीव के आवलिका के अन्त में अनन्तानुबंधी कषायों का जघन्य प्रदेशोदय होता है।
विशेषार्थ – कोई जीव चार बार मोहनीयकर्म का उपशमन करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त बीतने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। तब मिथ्यात्व के निमित्त से संयोजना अर्थात् अनन्तानुबंधी कषायों को बांधा और तत्पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त किया और एक सौ बत्तीस सागरोपम जैसे दीर्घकाल तक उसे परिपालन करता हुआ सम्यक्त्व के प्रभाव से अनन्तानुबंधी कषायों संबंधी बहुत से पुद्गलों को प्रदेशसंक्रम से निर्जीण करता है। तत्पश्चात् पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और मिथ्यात्व के निमित्त से पुनः अनन्तानुबंधी कषायों का जघन्य प्रदेशोदय होता है।
आवलिका के अनन्तरवर्ती समय में प्रथमसमयबद्ध दलिक का उदय होता है। अतः जघन्य प्रदेशोदय नहीं पाया जाता है, इस कारण गाथा में आवलिका के चरम समय में पद दिया है और संसार में एक जीव के चार बार ही मोहनीय का उपशम होता है, पांच बार नहीं ......। इस कारण 'चउरुवसमित्तु' चार बार उपशमना करके पद को ग्रहण किया है।
प्रश्न – यहां मोहनीय के उपशमन से क्या प्रयोजन है ?
उत्तर – जीव मोहनीय का उपशमन करता हुआ अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के बहुत से दलिकों को गुणसंक्रमण के द्वारा अन्य प्रकृतियों में संक्रमाता है। इसलिये क्षीण होने से शेष रही उन कषायों के दलिकों को अनन्तानुबंधी कषायों के बंध काल में अल्प ही संक्रमाता है। इस बात का संकेत करने के लिये 'मोह का उपशम' कहने का प्रयोजन है तथा –