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[ कर्मप्रकृति
अंतरकरणं होहित्ति, जायदेवस्स तं मुहुत्तंतो।
अट्ठण्ह कसायाणं, छण्हं पि य नोकसायाणं॥१४॥ शब्दार्थ – अंतरकरणं - अंतरकरण, होहित्ति – अनन्तर समय में होगा, जायदेवस्स - देव रूप में उत्पन्न के, तं – उसके, मुहत्तंतो - अन्तर्मुहूर्त के अंत में, अट्ठण्ह - आठ, कसायाणंकषायों का, छण्हं – छह, पि - भी, य - और, नोकसायाणं - नोकषायों का।
___ गाथार्थ – अनन्तर समय में जिसके अंतरकरण होगा कि उसके पूर्व ही मरकर देव रूप में उत्पन्न हुआ, उसके अंतर्मुहूर्त के अंत में आठों कषायों और छहों नोकषायों का भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है।
विशेषार्थ – उपशमश्रेणी को प्राप्त होकर अंतरकरण करेगा कि उसके एक समय पूर्व ही मरण कर देव हुआ और देवों में उत्पन्न होने के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त से परे गुणश्रेणी के शीर्ष पर वर्तमान ऐसे किसी जीव के अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क इन आठ मध्यम कषायों का और तीन वेदों को छोड़ कर शेष नोकषायों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा –
हस्सठिई बंधित्ता, अद्धाजोगाइठिइनिसेगाणं।
उक्कस्सपए पढमो,-दयम्मि सुरनारगाऊणं॥ १५॥ शब्दार्थ - हस्सठिई - जघन्य स्थिति को, बंधित्ता - बांध कर, अद्धाजोगाइठिइनिसेगाणं- अद्धा (बंधकाल) योग आदि स्थिति के निषेकों में, उक्कस्सपए - उत्कृष्ट पद में, पढमोदयम्मि – प्रथम उदय में, सुरनारगाऊणं - देवायु और नरकायु के।
गाथार्थ – अद्धा, योग आदि स्थिति के निषेकों के उत्कृष्ट पद में अल्प स्थिति बांध कर देवायु और नरकायु के प्रथमोदय में वर्तमान जीव के उस उस आयु का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है।
विशेषार्थ – अद्धा अर्थात् बंधकाल, योग अर्थात् मन, वचन, काय का निमित्तभूत वीर्य और आदिस्थिति अर्थात् प्रथम स्थिति, उसमें जो दलिकनिक्षेप होता है, वह आदिस्थिति दलिकनिक्षेप (निषेक रचना) कहलाता है। इन तीनों के उत्कृष्ट पद में होने पर, जिसका यह तात्पर्य है कि उत्कृष्ट बंधकाल के द्वारा उत्कृष्ट बंध के योग में वर्तमान कोई जीव ह्रस्व अर्थात् जघन्य स्थिति को बांधकर
और प्रथम स्थिति में उत्कृष्ट दलिक निक्षेप करके मरण करता हुआ देव अथवा नारक उत्पन्न हुआ, तब उस प्रथम स्थिति के उदय में वर्तमान देव के देवायु और नारक के नरकायु का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, तथा –