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उदयप्रकरण ]
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विशेषार्थ – अपनी प्रथम गुणश्रेणी के शीर्षत्व पर वर्तमान गुणितकांश उपशांत कषायी जीव के निद्राद्विक अर्थात् निद्रा और प्रचला का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा अपनी प्रथम गुणश्रेणी के शीर्षोदय को अनन्तर समय में प्राप्त करेगा और उसी समय में मरण कर देव रूप से उत्पन्न हुए ऐसे उसी देवरूप उपशांत कषायी जीव के अपनी प्रथम गुणश्रेणी शीर्ष पर वर्तमान रहते वैक्रियसप्तक और देवद्विक रूप सुर - देवनवक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। तथा –
मिच्छत्तमीसणंता - णुबंधि असमत्त थीणगिद्धीणं।
तिरिउदएगंताण य, बिइया तइया य गुणसेढी॥१३॥ शब्दार्थ – मिच्छत्तमीसणंताणुबंधि – मिथ्यात्व मिश्र मोहनीय अनन्तानुबंधी, असमत्तअपर्याप्त, थीणगिद्धीणं-स्त्यानर्द्धित्रिक का, तिरिउदएगंताण – एकान्तरूप में तिर्यंच - उदयप्रायोग्य का, य – और, बिइया – दूसरी, तइया – तीसरी, य - और, गुणसेढी – गुणश्रेणी।
___ गाथार्थ – मिथ्यात्व, मिश्र मोहनीय, अनन्तानुबंधी कषायों, अपर्याप्त, स्त्यानचित्रिक और एकान्त रूप से तिर्यंच - उदयप्रायोग्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय दूसरी और तीसरी गुणश्रेणीशीर्ष पर वर्तमान जीव के होता है।
विशेषार्थ – किसी जीव ने देशविरति होते हुए देशविरति निमित्तक गुणश्रेणी की और तत्पश्चात् वह संयम को प्राप्त हुआ और संयम निमित्तक गुणश्रेणी की। तब जिस काल में दोनों ही गुणश्रेणियों के शीर्ष एकत्र मिलते हैं, उस काल में वर्तमान गुणितकर्मांश कोई जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होता हो तब उसके मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषायों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है और यदि वह जीव सम्यक्त्व - मिथ्यात्व को प्राप्त होता हो तो सम्यग्मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा मिथ्यात्व को गये या नहीं गये उसी जीव के स्त्यानचित्रिक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय जानना चाहिये। क्योंकि स्त्यानर्द्धित्रिक का उदय प्रमत्तसंयत में भी पाया जाता है।
'तिरिउदएगंताण' अर्थात् तिर्यंच जीवों में ही एकान्त से जिनका उदय पाया जाता है, वे प्रकृतियां 'तिर्यगुदयैकान्त' कहलाती हैं – तिर्यक्ष्वेव उदय एकान्तेन यासां तास्तिर्यगुदयकान्ताः। ऐसी प्रकृतियां सात हैं । जिनके नाम हैं – एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण। इनका तथा अपर्याप्त नामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशोदय तिर्यंचभव की प्राप्ति होने पर देशविरति और सर्वविरति के गुणश्रेणीशीर्ष के एकत्र योग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव के अपने अपने उदय में वर्तमान होने पर होता है तथा –