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उपशमनाकरण ]
[ ३१७ ___ अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान मिथ्यादृष्टि, सास्वादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के पाया जाता है।
सत्ताईस प्रकृतिक स्थान सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वलना करने वाले मिथ्यादृष्टि के अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि के पाया जाता है। .
छब्बीस प्रकृतिक स्थान सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वलना करने वाले सादि मिथ्यादृष्टि के अथवा अनादि मिथ्यादृष्टि के पाया जाता है।
पच्चीस प्रकृतिक स्थान छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हुये अपूर्वकरण से आगे जानना चाहिये। क्योंकि उसके मिथ्यात्व की देशोपशमना का अभाव होता है।
अनन्तानुबंधी कषायों का उद्वलन करते समय अपूर्वकरण से परे वर्तमान जीव के चौबीस प्रकृतिक स्थान होता है । अथवा चौबीस प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के चौबीस प्रकृतिक स्थान होता है।
दर्शनमोहत्रिक और अनन्तानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों का क्षय करने वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि के इक्कीस प्रकृतिक स्थान होता है।
अब नामकर्म के प्रकृतिस्थानों का कथन करते हैं -
'संकम नियट्टिपाउग्गाई' इत्यादि अर्थात् प्रकृतिस्थान संक्रम में नामकर्म के जो यश कीर्ति के साथ स्थान कहे हैं, वे ही निवृत्ति प्रायोग्य अर्थात् अपूर्वकरण के योग्य यानि देशोपशमना के योग्य होते हैं । वे स्थान इस प्रकार हैं - एक सौ तीन, एक सौ दो, छियानवै, पंचानवै, तिरानवै, चौरासी और बयासी प्रकृतिक।
इनमें से आदि के चार स्थान अपूर्वकरण गुणस्थान के चरम समय तक जानना चाहिये, उससे आगे नहीं, तथा शेष तिरानवै, चौरासी और बयासी प्रकृति रूप स्थान एकेन्द्रिय आदि जीवों के होते हैं। वे श्रेणी को प्राप्त होने वाले जीवों के सम्भव नहीं हैं। तथा शेष नामकर्म के स्थान अपूर्वकरण गुणस्थान से आगे पाये जाते हैं, उससे पहले नहीं पाये जाते हैं, इसलिये देशोपशमना के योग्य नहीं है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों का एक एक प्रकृतिस्थान देशोपशमना के योग्य नहीं है। इनमें ज्ञानावरण और अन्तराय का पंच प्रकृत्यात्मक स्थान दर्शनावरण का नव प्रकृत्यात्मक स्थान, वेदनीय का द्विक प्रकृत्यात्मक स्थान देशोपशमना के योग्य होता है।