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[ कर्मप्रकृति
सादि है। उस स्थान के अप्राप्त जीवों के अनादि है। अभव्य जीवों के ध्रुव और भव्य जीवों के अध्रुव होती है।
इस प्रकार मूल प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये। अब उत्तर प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा करते हैं -
वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, मनुष्यद्विक, देवद्विक, नरकद्विक, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, उच्चगोत्र इन उद्वलना योग्य तेईस प्रकृति, तीर्थंकर और चार आयु, इन अट्ठाईस प्रकृतियों को छोड़ कर शेष एक सौ तीस प्रकृतियां ध्रुवसत्ता वाली हैं। इनकी देशोपशमना चार प्रकार की है, यथा – सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव। जो इस प्रकार है – मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषायों की देशोपशमना अपने अपने अपूर्वकरण से परे नहीं होती हैं । शेष कर्मों की भी देशोपशमना अपूर्वकरण गुणस्थान से परे नहीं होती है और उससे परवर्ती स्थान से गिरने वाले जीवों के होती है, इसलिये वह सादि है। उस स्थान को अप्राप्त जीवों को अनादि है। ध्रुव और अध्रुव विकल्प पूर्व के समान जानना चाहिये। शेष जो उद्वलन योग्य तेईस आदि अट्ठाईस प्रकृतियां ऊपर कही हैं, उनकी अध्रुव सत्ता होने से ही देशोपशमना सादि और अध्रुव जानना चाहिये। देशोपशमना के प्रकृतिस्थान अब देशोपशमना का आश्रय करके प्रकृतिस्थान की प्ररूपणा करते हैं - ___चउरादिजुया वीसा, एक्कवीसा य मोहठाणाणि।
संकमनियट्टिपाउ-ग्गाइं सजसाइनामस्स॥ ६९॥ शब्दार्थ – चउरादिजुया वीसा – चार आदि से युक्त बीस, एक्कवीसा – इक्कीस, य - और, मोहठाणाणि - मोहनीय के स्थान, संकम – संक्रम, नियट्टिपाउग्गाई - निवृत्तिप्रायोग्य, सजसाइ – यशःकीर्ति सहित, नामस्स – नामकर्म के।
___ गाथार्थ – चार आदि से युक्त बीस तथा इक्कीस ये छह मोहनीयकर्म के देशोपशमना के प्रकृतिस्थान हैं । नामकर्म के यश:कीर्ति सहित जो संक्रमस्थान कहे हैं, वे ही अपूर्वकरण में देशोपशमना संबंधी जानना चाहिये।
विशेषार्थ – देशोपशमना की अपेक्षा मोहनीयकर्म के छह प्रकृतिस्थान होते हैं, यथा - चार आदि युक्त बीस, अर्थात् चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस तथा इक्कीस। शेष स्थान अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में पाये जाते हैं, इसलिये वे देशोपशमना में संभव नहीं है। उक्त छह स्थानों में से -