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[ कर्मप्रकृति गाथार्थ - मूल और उत्तर के विभाग से प्रविभक्त देशकरणोपशमना प्रकृति स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद वाली है। उसके द्वारा उपशमित कर्म का यह अर्थपद (तात्पर्य) है।
विशेषार्थ – देशतः अर्थात् यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण नामक दो करणों के द्वारा कर्मप्रकृतियों की जो उपशमना होती है, उसे देशकरणोपशमना कहते हैं - देशतः करणाभ्यां यथाप्रवृत्तापूर्वकरण संज्ञाभ्यां कृत्वा प्रकृत्यादीनामुपशमना देशकरणोपशमना। इसका यह आशय है कि यथाप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण के द्वारा प्रकृतियों के जो दलिक एकदेश उपशमाये जाते हैं किन्तु सम्पूर्ण रूप से नहीं वह देशकरणोपशमना कहलाती है। वह चार प्रकार की है -
१. प्रकृतिदेशोपशमना २. स्थितिदेशोपशमना ३. अनुभागदेशोपशमना ४. प्रदेशदेशोपशमना
यह चारों ही प्रत्येक दो प्रकार की हैं - १. मूलप्रकृति विषयक और २. उत्तरप्रकृति विषयक।इस देशकरणोपशमना से शमित अर्थात् उपशम को प्राप्त किये गये कर्म का यह तात्पर्य है। जिसको आगे की गाथा में विशेषरूप से स्पष्ट करते हैं -
उव्वट्टणओवट्टण-संकमणाई च तिन्नि करणाइं।
पगईतयासमईओ', पहू नियट्टिमि वटुंतो॥ ६७॥ शब्दार्थ – उव्वट्टणओवट्टण – उद्वर्तना, अपवर्तना, संकमणाई - संक्रमण, च - और, तिन्नि – तीन, करणाई – करण, पगईतयासमईओ - प्रकृतियों को उपशमाने के लिये, पहू- समर्थ नियट्टिमि - निवृत्तिबादर (अपूर्वकरण)में , वर्सेतो – वर्तमान।
गाथार्थ – उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रमण ये तीन करण देशोपशमना में होते हैं और निवृत्तिकरण में वर्तमान जीव इसे देशोपशमना द्वारा प्रकृतियों को उपशमाने के लिये समर्थ है।
___विशेषार्थ – देशोपशमना से उपशांत हुए कर्म के उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण रूप तीन करण प्रवर्तित होते हैं, उदीरणा आदि करण नहीं होते हैं । यह देशोपशमना की विशेषता है । तथा निवृत्तिकरण अर्थात् अपूर्वकरण में उस देशोपशमना से मूल प्रकृतियों या उत्तर प्रकृतियों को उपशमाने के लिये प्रभू अर्थात् समर्थ होता है। १. यथाप्रवृत्तकरणापूर्वकरणाभ्यां यत् प्रकृत्यादिकं देशत: उपशमयति, न सर्वात्मना सा देशकरणोपशमना। २. 'उवसमिओ' - इति पाठान्तरम्