________________
३१२ ]
[कर्मप्रकृति विशेषार्थ – उपशमश्रेणी को प्राप्त होती हुई स्त्री पहले नपुंसकवेद को उपशमाती है और उसके पश्चात् स्त्रीवेद को उपशमाती रहती है जब तक कि अपने उदय का द्विचरम प्राप्त होता है उस समय एक चरम समय मात्र उदयस्थिति को छोड़कर शेष सम्पूर्ण स्त्रीवेद संबंधी दलिक उपशांत हो जाते हैं । तत्पश्चात् चरम समय के व्यतीत होने पर अवेदक होती हुई पुरुषवेद और हास्यादि षट्क इन सातों प्रकृतियों को एक साथ उपशमाना प्रारम्भ करती है। शेष सर्वविधि पुरुषवेद से श्रेणी को प्राप्त करने वाले जीव के समान जानना चाहिये। ___अब नपुंसकवेद से उपशमश्रेणी को प्राप्त होने वाले जीव की विधि कहते हैं -
'तह वरिसवरो' इत्यादि अर्थात् वर्षवर यानि नपुंसक जीव भी उपशमश्रेणी को प्राप्त होता हुआ उसी प्रकार से (पूर्वोक्त प्रकार से) एक उदयस्थिति को छोड़कर नपुंसक और स्त्रीवेद को एक साथ उपशमाता है। 'कमारद्धे इति' अर्थात् क्रम से उपशम करना प्रारम्भ करने पर भी इन दोनों वेदों को एक साथ उपशमाता है।
यहां एक मतान्तर है - स्त्रीवेद या पुरुषवेद से उपशमश्रेणी को प्राप्त होता हुआ जीव जिस स्थान पर नपुंसकवेद को उपशमाता है, उतनी दूर तक नपुंसकवेद से भी श्रेणी को प्राप्त होता हुआ केवल नपुंसकवेद को ही उपशमाता है। पुनः उससे आगे नपुंसकवेद और स्त्रीवेद को एक साथ उपशमाने लगता है और उपशमाता हुआ वह नपुंसकवेद के द्विचरम समय तक जाता है। उस समय स्त्रीवेद उपशांत होता है और नपुंसकवेद की एक समय मात्र उदयस्थिति रहती है, शेष सर्वदलिक उपशांत हो जाते हैं। उस उदयस्थिति के भी व्यतीत होने पर वह जीव अवेदक हो जाता है। तत्पश्चात पुरुषवेद आदि सातों प्रकृतियों को एक साथ उपशमाने के लिये प्रयत्न करता है। शेष कथन पूर्व के समान जानना चाहिये।
उपशमश्रेणी में उपशांत होती हुई मोहनीय की २८ प्रकृतियों के अनुक्रम का प्रारूप इस प्रकार है -
उपशांतमोह गुणस्थान उपशमश्रेणी का चरम स्थान संज्वलन लोभ
क्रमशः आगे देखें १. दिगम्बर कर्मग्रन्थों में इसी प्रकार उपशम का विधान किया है। किन्तु उसमें अनन्तानुबंधी का विधान नहीं किया है देखो
लब्धिसार २०५ से ३९१ तक। . उपशमना प्रकरण में उपशमश्रेणी का वर्णन किया है। उपशमना मोहनीय कर्म की होती है और क्षपकश्रेणी में सभी कर्मों