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७, ८: निधत्ति, निकाचनाकरण
उपशमनाकरण का विवेचन करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त निधत्ति और निकाचनाकरण का प्रतिपादन करते हैं – निधत्ति और निकाचना का लक्षण इस प्रकार है -
देसोवसमणतुल्ला, होइ निहत्ति निकाइया नवरं।
संकमणं पि निहत्तीए, नत्थि सेसाण वियरस्स॥१॥ शब्दार्थ - देसोवसमणतुल्ला - देशोपशमना के तुल्य, होइ - होते है, निहत्ति - निधत्तिकरण, निकाइया - निकाचनाकरण, नवरं - विशेष, संकमणं - संक्रमण, पि - भी, निहत्तीए – निधत्ति में, नत्थि – नहीं होता है, सेसाण - शेष, वि - भी, इयरस्य - इतर में (निकाचना में।)
गाथार्थ – निधत्तिकरण और निकाचनाकरण देशोपशमना के समान होते हैं। विशेष यह है कि निधत्तिकरण में संक्रम भी नहीं होता है तथा इतर (निकाचनाकरण) में शेष करण भी नहीं होते हैं।
विशेषार्थ – निधत्ति और निकाचनाकरण देशोपशमना के समान है। इसका तात्पर्य यह है कि देशोपशमना के जो भेद और स्वामी कहे गये हैं, वे हीनाधिकता से रहित जैसे के तैसे निधत्तिकरण
और निकाचनाकरण के भी जानना चाहिये। विशेष – निधत्ति और निकाचना का अर्थपद यह है कि निधत्ति में संक्रमण अर्थात परप्रकृति संक्रमण भी नहीं होता है तथा गाथा में आगत 'पि' शब्द का आशय यह है कि उदीरणा आदिकरण भी निधत्त हुए कर्मों में नहीं होते हैं। किन्तु उद्वर्तना और अपवर्तनाकरण होते हैं । तथा इत्तर यानि निकाचनाकरण में शेष भी अर्थात् उद्वर्तना और अपवर्तना भी नहीं होते हैं। सारांश यह है कि निकाचित्त कर्म सकल करणों के अयोग्य होता है - सकलकरणायोग्यं निकाचितमित्यर्थः।
जहां पर गुणश्रेणी होती है, वहां पर प्रायः देशोपशमना निधत्ति निकाचना और यथाप्रवृत्त संक्रम भी होते हैं, इसलिये अब इनके अल्पबहुत्व का कथन करते हैं -
गुणासेढिपएसग्गं, थोवं पत्तेगसो असंखगुणं।
उवसामणाइ (सु) तीसुवि, संकमणेहप्पवत्ते य ॥२॥ शब्दार्थ – गुणसेढिपएसग्गं – गुणश्रेणी में प्रदेशाग्र, थोवं – अल्प, पत्तेगसो - प्रत्येक के, असंखगुणं - असंख्यगुणित, उवसामणाइ – उपशमना आदि, तिसु -तीन में, वि - तथा, संकमणेहप्पवत्ते – यथाप्रवृत्तसंक्रमण में, य - और।