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उदयप्रकरण ]
__ [ ३२३ बादर, पर्याप्त सुभग, आदेय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र को अयोगी उदय से वेदन करते हैं।
विशेषार्थ – उदय, उदीरणा के तुल्य है। इसका आशय यह है उदीरणा के प्रकृति उदीरणा आदि जो भेद पहले कहे गये हैं, जो सादि अनादि प्ररूपणा की है, जो स्वामित्व का कथन किया है, वह सब हीनाधिकता से रहित जैसा का तैसा उदय में भी जानना चाहिये। क्योंकि उदय और उदीरणा सहभावी हैं। वह इस प्रकार समझना चाहिये कि जहां जिस प्रकृति का उदय होता है, वहां उसकी उदीरणा भी होती है और जहां जिस प्रकृति की उदीरणा होती है, वहां उसका उदय भी होता है।
प्रश्न – क्या सर्वत्र ही ऐसा नियम है ?
उत्तर - हाँ इकतालीस प्रकृतियों को छोड़कर ऐसा ही नियम है। क्योंकि इन इकतालीस प्रकृतियों का उदीरणा के बिना भी कितने ही काल तक उदय पाया जाता है। वे इकतालीस प्रकृतियां इस प्रकार है -
ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क,अन्तरायपंचक, संज्वलन लोभ, वेदत्रिक, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन बीस प्रकृतियों को जीव अपने अपने उदय का पर्यवसान होने पर आवलिका मात्र काल अधिक वेदन करते हैं । अर्थात् उदीरणा के बिना भी केवल उदय से एक आवलिका प्रमाण काल तक जीव उनका उदय से अनुभव करते हैं। यह आवलिका मात्र काल तीनों वेदों का, मिथ्यात्व का अन्तरकरण की प्रथम स्थिति में एक आवलिका शेष रह जाने पर और शेष कर्मों का अपनी अपनी सत्ता के अंत में तथा चारों ही आयु कर्मों का अपनी अपनी स्थिति के अंत में आवलिका मात्र उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है।
मनुष्यायु और दोनों वेदनीय की अप्रमत्त अर्थात् अप्रमत्त आदि ऊपर के गुणस्थानवी जीव उदीरणा के बिना ही केवल उदय से वेदन करते हैं।
___ तनुपर्याप्त' अर्थात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होते हुये जीव द्वितीय समय से लेकर अर्थात् शरीरपर्याप्ति के अनन्तर समय से आरम्भ करके इन्द्रियपर्याप्ति के चरम समय तक उदीरणा के बिना केवल उदय से ही पांचों निद्राओं का वेदन करते हैं।
__ मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश कीर्ति और उच्चगोत्र इन नौ प्रकृतियों को अयोगिकेवली उदीरणा के बिना अपने काल तक केवल उदय से ही वेदन करते हैं तथा कितने ही अयोगिकेवली जो तीर्थंकर हैं, वे तीर्थंकर नाम को भी उदय से ही वेदन करते हैं।
इस प्रकार प्रकृति - उदय के विवेचन में इकतालीस प्रकृतियों के उदययोग्य होने के कार को स्पष्ट किया गया है। अब स्थिति - उदय का प्रतिपादन करते हैं -