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[ कर्मप्रकृति
गुणश्रेणी असंख्यातगुणित, उदओ - उदय, तव्विवरीओ – उससे विपरीत, कालो – काल, संखेजगुणसेढी - संख्यात गुणश्रेणी।
गाथार्थ -सम्यक्त्व की उत्पति में, श्रावक(देशविरति) में, सर्वविरति में, संयोजना कषायों के विनाश में, दर्शनमोह के क्षपण में, कषायों के उपशम में, उपशांतमोह में, क्षपण में, क्षीणमोह में,
और दोनों प्रकार के जिन, संयोगी केवली, अयोगी केवली भगवान में गुणश्रेणी असंख्यातगुणित क्रम से होती है। उदय अर्थात् उदय रचना असंख्यात गुणाकार वाली है और इनका काल उनसे विपरीत संख्यात गुणश्रेणी रूप है।
विशेषार्थ - ग्यारह गुणश्रेणियां होती हैं । जो इस प्रकार हैं -
१. सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रत्ययिक, २. श्रावक देशविरतिप्रत्ययिक, ३. विरत - सर्वविरति (प्रमत्त और अप्रमत्त) प्रत्ययिक, ४. संयोजना-अनन्तानुबंधी, विसंयोजनाप्रत्ययिक, ५. दर्शनमोहनीयत्रिक क्षपणाप्रत्ययिक, ६.चारित्रमोहनीयउपशमनप्रत्ययिक,७. उपशांतमोहनीयप्रत्ययिक, ८. मोहनीयक्षपणप्रत्ययिक, ९. क्षीणमोहप्रत्ययिक, १०. सयोगिकेवलीप्रत्ययिक, ११. अयोगिकेवलीप्रत्ययिक। ये ग्यारह गुणश्रेणियां हैं तथा प्रदेशोदय की अपेक्षा ये गुणश्रेणियां असंख्यात गुणित होती हैं, 'असंखगुणसेढीउदयो' सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय होने वाली गुणश्रेणी में दलिक वक्ष्यमान श्रेणियों की अपेक्षा सबसे कम होते हैं, उससे असंख्यातगुणित दलिक देशविरति की गुणश्रेणी में हैं, उससे भी असंख्यात गुणित दलिक सर्व विरति की गुणश्रेणी में होते हैं। इस प्रकार अयोगि केवली की गुणश्रेणी तक दलिक उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित कहना चाहिये। इसलिये प्रदेशोदय के आश्रय से ये गुणश्रेणियां क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित कहना चाहिये। १. आचारांग वृत्ति में २७ गुणश्रेणियां बतलाई हैं। जो यहां बताई गई गुणश्रेणियों का विस्तार है। दोनों में संक्षेप और विस्तार विवक्षा के अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं है। आचारांगवृत्ति गत श्रेणियों के नाम इस प्रकार हैं - १. अल्पस्थितिकग्रंथिसत्व, २. धर्मप्रश्नाभिमुखी, ३. धर्मप्रश्चागमनकर्ता, ४. धर्मपृच्छक, ५. धर्मस्वीकाराभिलाषी, ६. धर्मप्रतिपद्यमान, ७. प्रतिपन्नधर्मी, ८. प्रतिपत्युभिमुख देशविरत, ९. प्रतिपद्यमानदेशविरत, १०.प्रतिपन्नदेशविरत, ११. प्रतिपत्यभिमुखसर्वविरत, १२. प्रतिपद्यमानसर्वविरत, १३. प्रतिपन्नसर्वविरत, १४. प्रतिपत्त्यमि, १५. प्रतिपत्यभिमुख दर्शनमोहक्षपक, १६. प्रतिपन्नअनन्तानुबंधीविसंयोजक (क्षपक), १७. प्रतिपत्यभिमुखसर्वविरत, १८. प्रतिपद्यमानदर्शनमोहक्षपक, १९. प्रतिपन्नदर्शनमोहक्षपक, २०. प्रतिपन्नचारित्रमोहोपक्षपक, २३. प्रतिपत्त्यभिमुखचारित्रमोहक्षपक, २४. प्रतिपद्यमानचारित्रमोहक्षपक, २५. प्रतिपन्नचारित्रमोहक्षपक, २६. भवस्थ सर्वज्ञ, २७. शैलेशी वंत।
इन २७ प्रकारों में अनुक्रम से संख्यात गुणहीन अन्तर्मुहूर्त में क्रमशः असंख्यात गुण अधिक कर्मप्रदेशों की निर्जरा होती है। इनमें से आदि की ७ श्रेणियों का सम्यक्त्वप्रत्ययिक गुणश्रेणी में समावेश हो जाता है।