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९: उदय प्रकरण
बंधन आदि आठ करणों का कथन पूर्ण करने के अनन्तर अब उद्देश क्रम से प्राप्त उदय की प्ररूपणा करते हैं। प्रकृति उदय, स्थिति उदय, अनुभाग उदय और प्रदेश उदय के भेद से उदय के चार प्रकार हैं। यथाक्रम से जिनका विवेचन किया जायेगा। सर्व प्रथम प्रकृति-उदय का प्रतिपादन करते
हैं
उदओ उदीरणाए, तुल्लो मोत्तूण एक्कचत्तालं। आवरणविग्घसंज - लणलोभवेए य दिट्ठिदुगं॥१॥ आलिगमहिगं वेए (इं) ति आउगाणं पि अप्पमत्ता वि। वेयणियाण य दुसमय तणुपज्जत्ता य निहाओ॥२॥ मणुयगइजाइ तस - बायरं च पज्जत्त सुभगमाएजं।
जसकित्तिमुच्चगोयं, चाजोगी (गा) केइ तित्थयरं ॥३॥ शब्दार्थ – उदओ – उदय, उदीरणाए - उदीरणा, तुल्लो - तुल्य, मोत्तूण - छोड़कर, एक्कचत्तालं - इकतालीस, आवरण -- आवरणद्विक, विग्घ - अन्तराय, संजलणलोभे - संज्वलन लोभ, वेए - वेद, य - और, दिट्ठिदुर्ग - दर्शनमोहनीयद्विक।
आलिगमहिगं - आवलिका अधिक, वेएत्ति - वेदे जाते हैं, आउगाणं - आयु कर्मों का, पि - भी, अप्पमत्ता - अप्रमत्तादिक, वेयणियाण - वेदनीय आदि, य - और, दुसमय - द्वितीय समय, तणुपजत्ता - शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त, य - और, निहाओ-निद्राओं को।
मणुयगइ - मनुष्यगति, जाई - पंचेन्द्रिय जाति, तसबायरं - त्रस बादर, च - और, पजत्त सुभगमाएजं - पर्याप्त, सुभग, आदेय, जसकित्तिं - यश:कीर्ति, उच्चगोयं - उच्च गोत्र, च - और, अजोगी - अयोगी, केई - कोई, तित्थयरं - तीर्थंकर।
गाथार्थ – इकतालीस प्रकृतियों को छोड़कर उदय उदीरणा तुल्य है। आवरणद्विक (ज्ञानावरण पंचक, दर्शनावरणचतुष्क) अन्तराय (पंचक), संज्वलन लोभ, वेद (त्रिक) और दर्शनमोहद्विक एक आवलिका अधिक वेदन किये जाते हैं। वेदनीय को अप्रमत्त जीव उदय से वेदन करते हैं और शरीरपर्याप्त जीव द्वितीय समय से निद्राओं का उदय से वेदन करते हैं । मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस,