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निधत्ति, निकाचनाकरण ]
[ ३२१ गाथार्थ – गुणश्रेणी में प्रदेशाग्र अल्प होते हैं उन से उपशमनादि तीन करणों में और यथाप्रवृत्तसंक्रमण में अनुक्रम से प्रत्येक के प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित होते हैं।
विशेषार्थ - गुणश्रेणी में प्रदेशाग्र सबसे अल्प हैं। तत्पश्चात् उपशमना आदि तीन में और यथाप्रवृत्तसंक्रमण में प्रत्येक के प्रदेशाग्र असंख्यात गुणित जानना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि जिस किसी भी कर्म का गुणश्रेणी संबंधी प्रदेशाग्र सबसे अल्प है, उससे देशोपशमना में असंख्यात गुणित प्रदेशाग्र होता है। उससे निधत्ति में असंख्यात गुणित्त प्रदेशाग्र होता है। उससे भी निकाचित प्रदेशाग्र असंख्यात गुणित और उससे भी यथाप्रवृत्तसंक्रमण के द्वारा संक्रांत प्रदेशाग्र असंख्यात गुणित होता है।
इस प्रकार बंधदि निकाचना पर्यन्त आठों करणों का विवेचन पूर्ण करने के पश्चात अब उपसंहार करते हुए आठों करणों के अध्यवसायों के परिणाम का निरूपण करते हैं -
थोवा कसायउदया, ठिइबंधोदीरणा य (इ) संकमणा।
उवसामणाइसु अज्झवसाया कमसो असंखगुणा॥३॥ शब्दार्थ – थोवा – स्तोक, अल्प, कसायउदया – कसायोदया, ठिइबंधा – स्थितिबंध के, उदीरणा – उदीरणा, य - और, संकमणा – संक्रमण के, उवसामणाइसु - उपशमनादिक के संक्रम के और, अज्झवसाया - अध्यवसाय, कमसो - क्रम से, असंखगुणा - असंख्यात गुणित।
गाथार्थ – स्थितिबंध के कषायोदय अध्यवसाय अल्प हैं। उन से उदीरणा के, संक्रमण के और उपशमना आदि के अध्यवसाय क्रम से असंख्यात गुणित हैं।
विशेषार्थ – स्थितिबंध यह उपलक्षण पद है। इस लिये स्थितिबंध और अनुभागबंध में जो कषायोदय अर्थात् बंधन कराने वाले अध्यवसाय हैं, वे वक्ष्यमाण पदों की अपेक्षा सबसे अल्प हैं। प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध योग से होते हैं, इसलिये ये दोनों यहां ग्रहण नहीं किये गये हैं और अनुभाग बंध उपलक्षण के व्याख्यान से ग्रहण किया गया है। तदनन्तर स्थितिबंध में कषायोदय स्तोक है इसका तात्पर्य यह है - बंधनकरण के अध्यवसाय सबसे अल्प हैं। उनसे उदीरणाकरण के अध्यवसाय असंख्यात गुणित हैं। उनसे भी संक्रमणकरण के अध्यवसाय असंख्यात गुणित हैं । संक्रमण पद के ग्रहण से यहां पर उद्वर्तना और अपवर्तनाकरण भी ग्रहण किये हुए जानना चाहिये। क्योंकि ये दोनों संक्रमणकरण के भेद हैं । उनसे उपशमनाकरण के अध्यवसाय असंख्यात गुणित हैं । उनसे भी निधत्तिकरण के अध्यवसाय असंख्यात गुणित हैं और उनसे भी निकाचनाकरण के अध्यवसाय असंख्यात गुणित होते हैं। इस प्रकार आठों करणों का सांगोपांग विवेचन सम्पूर्ण हुआ।