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[ कर्मप्रकृति
किन्तु जब तक कोई जीव मान के उदय के साथ श्रेणी को प्राप्त होता है, तब मान को वेदन करता हुआ ही पहले नपुंसकवेद को पूर्वोक्त क्रम से तीनों क्रोधों को उपशमाता है । तत्पश्चात् क्रोधोक्त प्रकार से तीनों मानों को उपशमाता है। इसके अतिरिक्त शेष कथन पूर्व के समान ही जानना चाहिये ।
जब कोई जीव माया के साथ श्रेणी को प्राप्त होता है, तब माया को वेदन करता हुआ पहले नपुंसक वेदोक्त प्रकार से क्रोधत्रिक को उपशमाता है और उसके बाद मानत्रिक को उपशमाता है और उसके पश्चात् क्रोधोक्त प्रकार से तीनों माया कषायों को उपशमाता है। शेष कथन तथैव ( पूर्व के समान) जानना चाहिये ।
जब कोई जीव लोभ के उदय के साथ श्रेणी को प्राप्त होता है, तब लोभ का वेदन करता हुआ पहले तीनों क्रोधों को नपुंसकवेदोक्त क्रम से उपशमाता है । तत्पश्चात् तीनों मानों को और उसके पश्चात् तीनों माया कषायों को उपशमाता है और उसके अनन्तर पूर्वोक्त प्रकार से तीनों लोभों को उपशमाता है ।
अब प्रतिपात का कथन करते हैं अर्थात् उपशमश्रेणी की चरमस्थिति प्राप्त करने के बाद जीव वहां से गिरता है, तो अब उस पतन के रूप को बतलाते हैं
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प्रतिपात दो प्रकार से होता है १. भव के क्षय से और २. उपशांताद्धा के क्षय से । इनमें से भवक्षय वाला प्रतिपात मरने वाले जीव के होता है और अद्धाक्षय वाला प्रतिपात उपशांताद्धा के समाप्त होने से होता है ।
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भव क्षय से जो जीव गिरता है, उसके प्रथम समय में ही सभी करण आरम्भ हो जाते हैं। वह प्रथम समय में जिन कर्मों की उदीरणा करता है, उन्हें उदयावलि में प्रविष्ट करता है और जो उदीरणा को प्राप्त नहीं होते हैं उनके दलिकों की उदयावलि से बाहर गोपुच्छ के आकार से रचना करता है । किन्तु जो जीव उपशांतमोह गुणस्थान के काल का परिक्षय हो जाने से गिरता है, वह जिस क्रम से स्थितिघात, आदि को करता हुआ चढ़ा था, उसी क्रम से पश्चातनुपूर्वी से स्थितिघात आदि को करता हुआ गिरता है और प्रमत्तगुणस्थान तक गिरता है। गिरते समय होने वाली अवस्था इस प्रकार है
उदयादिसुं
विसेसूणं
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ओकड्डित्ता बिइय-ठिईहिं उदयादिसुं खिवइ दव्वं । सेढिए विसेसूणं, आवलिउप्पिं असंखगुणं ॥ ५८ ॥
शब्दार्थ
उदयादि में, खिवइ - प्रक्षेप करता है, दव्वं विशेषहीन, आवलिउप्पिं
श्रेणी से
ओकड्ढित् आकर्षित करके, बिइय – दूसरी, ठिईहिं – स्थिति में से, द्रव्य को, सेढिए आवलिका से ऊपर, असंखगुणं – असंख्यातगुणित ।