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उपशमनाकरण ]
[ ३०५ उवसंतद्धा भिन्नमुहुत्तो तीसे य संखतमतुल्ला।
गुणसेढी सव्वद्धं, तुल्ला य पएसकालेहिं॥५६॥ शब्दार्थ – उवसंतद्धा - उपशांताद्धा, भिन्नमुहुत्तो – भिन्नमुहूर्त (अन्तर्मुहूर्त) प्रमाण तीसे - उसके, संखतमतुल्ला – संख्यातवें भाग तुल्य, गुणसेढी – गुणश्रेणी, सव्वद्धं – सर्वकाल तुल्ला - समान, य - और, पएसकालेहिं – प्रदेश और काल की अपेक्षा।
गाथार्थ - यह उपशान्ताद्धा अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और उसके असंख्यातवें भाग काल के तुल्य गुणश्रेणी की रचना करता है । वह गुणश्रेणी प्रदेश और काल की अपेक्षा सर्व काल समान होती
विशेषार्थ – उपशांताद्धा अर्थात् उपशांतमोह गुणस्थान का काल भिन्नमुहूर्त अर्थात् अन्तर्मुहूर्त है। इसमें वह उपशांत संयत उस उपशांताद्धा के संख्यातवें भाग प्रमाण वाली गुणश्रेणी रचता है। वह सम्पूर्ण गुणश्रेणी सर्वाद्धा अर्थात् सम्पूर्ण उपशांत काल तक प्रदेश और काल की अपेक्षा समान करता है क्योंकि उस समय परिणाम अवस्थित रहते हैं । तत्पश्चात् - उपशमक का पतन
उवसंता य अकरणा, संकमणोवट्टणा य दिट्ठितिगे।
पच्छाणुपुव्विगाए, परिवडइ पमत्तविरतो ति॥ ५७॥ शब्दार्थ – उवसंता – उपशान्त प्रकृतियां, य - और, अकरणा - करणरहित, संकमणोवट्टणा - संक्रम, अपवर्तन, य - और, दिट्ठितिगे - दर्शनमोहत्रिक में, पच्छाणुपुव्विगाएपश्चातनुपूर्वी से, परिवडइ – गिरता है, पमत्तविरतो – प्रमत्तविरत गुणस्थान, त्ति – तक।
गाथार्थ – उपशांत प्रकृतियां करण रहित होती हैं। किन्तु दर्शनमोहत्रिक में संक्रम और अपवर्तन होते हैं और पश्चातनुपूर्वी से पतित होता हुआ प्रमत्तविरत गुणस्थान तक गिरता है।
_ विशेषार्थ – उपशांत हुई मोहनीय की प्रकृतियां अकरण अर्थात् करण रहित होती हैं - अर्थात् वे संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना करण के अयोग्य होती हैं। लेकिन दृष्टित्रिक अर्थात् दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों का उपशम होने पर भी उनमें संक्रमण और अपवर्तन करण होते हैं। वे इस प्रकार समझना चाहिये कि मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का संक्रम सम्यक्त्व मोहनीय में होता है किन्तु अपवर्तना तीनों ही प्रकृति की होती है।
इस प्रकार उपयुक्त सर्व उपशमनविधि संज्वलनक्रोध के साथ उपशमश्रेणी को प्राप्त जीव की जानना चाहिये।