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[ कर्मप्रकृति
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ही होती है और वह उदीरणा भी निवृत्त हो जाती है । तत्पश्चात् केवल उदय से ही उस आवलिका का काल अनुभव करता है और उसके भी व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व का उदय भी निवृत्त हो जाता है क्योंकि तब मिथ्यात्व के दलिकों का अभाव हो जाता है और उनके दूर होने पर औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्ति के लाभ
अब औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति से होने वाले लाभ का प्रतिपादन करते हैं।
मिच्छत्तदए खीणे, लहए सम्मत्त मोवसमियं सो । लंभेण जस्स लब्भई, आयहियमलद्ध पुव्वं जं ॥
१८ ॥
शब्दार्थ - मिच्छत्तदए - मिथ्यात्व के उदय का, खीणे प्राप्त करता है, सम्मत्तमोवसमियं औपशमिक सम्यक्त्व को, सो जस्स - जिसकी, लब्भई प्राप्त करता है, आयहियं जं - जो ।
अप्राप्त,
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क्षय हो जाने पर, लहए
वह, लंभेण प्राप्ति से, आत्महित को, अलद्धपुव्वं - पूर्व में
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गाथार्थ - मिथ्यात्व के उदय का क्षय हो जाने पर वह जीव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, जिसकी प्राप्ति से वह जीव जो पूर्व में अप्राप्त, ऐसे आत्महित को प्राप्त करता है ।
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विशेषार्थ उक्त प्रकार से मिथ्यात्व के उदय का क्षय हो जाने पर वह जीव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, जिसके लाभ से जो आत्महित पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था उस लाभ को अर्थात् अर्हन्त प्रतिपादित तत्व की प्रतिपत्ति रुचि को प्राप्त करता है । जिसको एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं कि
जैसे जन्मांध पुरुष को नेत्र का लाभ होने पर महान् आनन्द प्राप्त होता है, अथवा जैसे महा व्याधि से पीड़ित पुरुष को व्याधि दूर होने पर महान प्रमोद होता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व के लाभ होने पर यथावस्थित वस्तुतत्त्व का दर्शन हो जाता है। कहा भी है
जात्यंधस्य यथा पुंसश्चक्षुर्लाभे शुभोदये। सद्दर्शनं तथैवास्य सम्यक्त्वे सति जायते ॥ १ ॥
आनन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः । सद्व्याध्यपगमे यद्वद्व्याधितस्य सदौषघात् ॥ २ ॥
अर्थात् जैसे पुण्य के उदय होने पर जन्मांध पुरुष को नेत्र के लाभ में जो आनन्द होता है उसी