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उपशमनाकरण ]
[ २७९ भावार्थ यह है कि -
जो जीव अनन्तानुबंधी का क्षपण प्रारम्भ करते हैं वे जीव यथाप्रवृत्त आदि तीनों करणों को प्रारम्भ करते हैं । विशेष यह है कि यहां पर अपूर्वकरण में प्रथम समय से ले कर अनन्तानुबंधी कषायों का गुणसंक्रम होना समझना चाहिये। वह इस प्रकार कि अपूर्वकरण के प्रथम समय में अनन्तानुबंधी कषायों के अल्प दलिकों को संक्रमाता है, द्वितीय समय में उससे भी असंख्यातगुणित दलिकों को संक्रमाता है, तृतीय समय में उससे भी असंख्यातगुणित दलिकों को संक्रमाता है। यह तब तक जानना चाहिये जब तक अपूर्वकरण का चरम समय आता है। यही अनन्तानुबंधी कषायों का गुणसंक्रम है। पुनः अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट होता हुआ पूर्वोक्त स्वरूप से उद्वलनासंक्रमण के द्वारा सम्पूर्ण अनन्तानुबंधीकषायों के दलिकों का विनाश करता है, किन्तु अधःस्तन आवलिका मात्र दलिकों को छोड़ देता है। उन्हें भी स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा वेद्यमान प्रवृत्तियों में संक्रमाता है। तब अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अनिवृत्तिकरण का अंत हो जाने पर शेष कर्मों का स्थितिघात रसघात और गुणश्रेणी नहीं होती है, किन्तु वह स्वभावस्थ ही रहता है।
___इस प्रकार अनन्तानुबंधी कषायों की विसंयोजना जानना चाहिये। किन्तु जो आचार्य अनन्तानुबंधी कषायों की भी उपशमना मानते हैं, उनके मत से उपशमना की विधि षड्शीति की टीका से जानना चाहिये। दर्शनमोहनीय क्षपणा अब दर्शनमोहनीय की क्षपणा की विधि का विवेचन करते हैं -
दसणमोहे वि तहा, कयकरणद्धाए पच्छिमे होइ।
जिणकालगो मणुस्सो पट्ठवगो अट्ठवासुप्पिं॥३२॥ शब्दार्थ – दसणमोहे – दर्शनमोहनीय में, वि - भी, तहा – उसी तरह, कयकरणद्धाएकृतकरण अद्धा में, पच्छिमे - अंतिम खंड, होइ - होता है, जिणकालगो – जिनकालिक, मणुस्सो – मनुष्य, पट्ठवगो – प्रस्तावक, अट्ठवासुप्पिं - आठ वर्ष से ऊपर (अधिक)।
गाथार्थ – दर्शनमोहनीय की क्षपणा में भी उसी तरह पूर्ववत् क्रम है। विशेष यह है कि आठ वर्ष की आयु से ऊपर जिनकालिक मनुष्य इसका प्रस्थापक होता है और अंतिम खंड क्षपण करते हुए कृतकरणाद्धा में वर्तमान होता है।
विशेषार्थ – दर्शनमोहनीय की क्षपण का प्रस्थापक अर्थात् आरम्भ करने वाला जिनकालिक १. षड्शीति टीकागत अनन्तानुबंधी की उपशमना का सारांश परिशिष्ट में देखिये।