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उपशमनाकरण ]
गाथार्थ
अन्तरकरण करने के बाद द्वितीयादि समय से छह आवलिका काल तक उदीरणा नहीं होती है। मोहनीय का नवीन रसबन्ध एकस्थानक तथा संख्यात वर्ष का बंध और उदय होता है । इसके बाद मोहनीय का अन्य स्थितिबंध संख्यातगुणहीन और शेष कर्मों का असंख्यात गुणहीन पुनः अन्तसमय तक असंख्यात गुणवृद्धि से नपुंसकवेद को उपशमाता है ।
. विशेषार्थ – 'दुसमयकयंतरे' अर्थात् अन्तरकरण करने पर दूसरे समय में ये सात अधिकार (कार्य) एक साथ प्रारम्भ होते हैं -
१. पुरुषवेद और संज्वलन कषायों का अनुपूर्वी से संक्रम ।
२. संज्वलन लोभ के संक्रम का अभाव ।
३. अन्तरकरण करने पर अनन्तरवर्ती प्रथम द्वितीयादि समयों में जो मोहनीय संबंधी प्रकृतिसत्व का और उससे व्यतिरिक्त अन्य कर्म संबंधी प्रकृतिसत्व का बंध होता है उनकी उदीरणा छह आवलिका काल के मध्य में नहीं होती है किन्तु छह आवलिका व्यतीत हो जाने पर होती है ।
४. मोहनीय का रसबंध एकस्थानक होता है ।
५. मोहनीय का स्थितिबंध संख्यात वर्ष वाला होता है ।
६. संख्यात वर्ष वाला उदीरणोदय ।
७. संख्यात वर्ष वाले स्थितिबंध से परे सभी अन्य स्थितिबंध पूर्व पूर्व स्थितिबंध से संख्या गुणहीन होता है और शेष कर्मों का स्थितिबंध असंख्यात गुणहीन होता है ।
'उवसमएनपुंसं' इत्यादि अर्थात् अन्तरकरण करने के दूसरे समय में नपुंसकवेद की असंख्यात गुणित रूप से उपशमना आरंभ करता है । यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि चरम समय प्राप्त होता है । वह इस प्रकार
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नपुंसकवेद के प्रथम समय में अल्पप्रदेशाग्र ( दलिक) उपशमाता है। उससे द्वितीय समय में असंख्यातगुणित, तृतीय समय में असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र उपशमाता है । इस प्रकार प्रति समय उपशमित दलिकों की अपेक्षा असंख्यातगुणित द्विचरम समय तक संक्रमाता है, किन्तु चरम समय में उपशमन किया जाने वाला दलिक पर प्रकृतियों में संक्रम्यमाण दलिकों की अपेक्षा असंख्यात गुण जानना चाहिये ।
नपुंसकवेद का उपशमन प्रारम्भ करने के प्रथम समय से लेकर सभी कर्मों की उदीरणा दलिकों की अपेक्षा अल्प होती है किन्तु उदय असंख्यात गुणा होता है । नपुंसक वेद के उपशांत होने पर स्त्रीवेद की पूर्वोक्त विधि से उपशमना आरम्भ करता है तथा
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