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[ कर्मप्रकृति आरंभ करता है और एक साथ ही समाप्त करता है। यह अंतर प्रथम स्थिति से संख्यात गुणा होता है। अन्तरकरण संबंधी दलिकों के प्रक्षेप की विधि यह है -
जिन कर्मों का उस समय उदय और बंध होता है, उनके अंतरकरण संबंधी दलिक को प्रथम स्थिति में और द्वितीय स्थिति में प्रक्षेपण करता है, यथा पुरुषवेद के उदय से श्रेणी पर चढ़ा हुआ जीव पुरुषवेद के दलिक को प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति में प्रक्षिप्त करता है। किन्तु जिन कर्मों का उस समय केवल उदय ही होता है और बंध नहीं होता है, उनके अन्तरकरण संबंधी दलिक को प्रथम स्थिति में ही प्रक्षिप्त करता है, द्वितीय स्थिति में नहीं करता है। जैसे स्रीवेद का दलिक प्रथम स्थिति में ही प्रक्षिप्त करता है, द्वितीय सिथति में नहीं तथा जिन कर्मों का उदय नहीं होता है, किन्तु केवल बंध होता है, उनके अन्तरकरण संबंधी दलिक का द्वितीय स्थिति में ही प्रक्षेप करता है, प्रथम स्थिति में नहीं। जैसे संज्वलन क्रोध के उदय से श्रेणी चढ़ा हुआ जीव शेष संज्वलन कषायों के अन्तरकरण संबंधी दलिक का द्वितीय स्थिति में ही प्रक्षेप करता है, प्रथम स्थिति में नहीं। किन्तु जिन कर्मों का यहां पर न बंध ही होता है और न उदय ही होता है, उनके अन्तरकरण संबंधी दलिक का पर प्रकृतियों में प्रक्षेप करता है। जैसे दूसरी, तीसरी कषाय (अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय) के दलिक का पर प्रकृतियों में प्रक्षेप करता है।
'गाथोक्त अन्नयरे" पद का अर्थ है कि संज्वलन कषाय और वेदों में से वेद्यमान किन्हीं प्रकृतियों की प्रथम स्थिति सम अर्थात् उदय काल के समान होती है। तथा –
दुसमयकयंतरे, आलिगाण छण्हं उदीरणाभिनवे। मोहे एक्कट्ठाणे, बंधुदया संखवासाणि॥४३॥ संखगुणहाणिबंधो, एत्तो सेसाणऽसंखगुणहाणी।
पउवसमए नपुंसं, असंखगुणणाए जावंतो॥४४॥ शब्दार्थ – दुसमय – द्वितीयादि समय, कयंतरे – अन्तरकरण करने के बाद, आलिगाणआवलिका काल तक, छण्हं – छह, उदीरणा – उदीरणा, अभिनवे – नवीन, मोहे – मोहनीय का, एक्कट्ठाणे - एकस्थानक, बंधुदया – बंध और उदय, संखवासाणि – संख्यात वर्ष का।
संखगुणहाणि – संख्यात गुणहीन, बंधो – बंध, एत्तो – इसके बाद, सेसाण - शेष कर्मों का, असंखगुणहाणी - असंख्यगुणहीन, पउवसमए – उपशमाता है, नपुंसं – नपुंसकवेद को, असंखगुणणाए - असंख्यात गुणवृद्धि से, जावंतो - अन्त समय तक।
१.'अन्नयरे' यह प्रयोग आर्ष होने से पुलिंग रूप से एकवचन में निर्देश किया गया है।