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[ कर्मप्रकृति प्रश्न – क्या उन किट्टियों को सर्व जघन्य अनुभाग वाले स्पर्धक के अनुभाग के सदृश करता है ? अथवा उससे भी हीन अनुभाग वाली करता है ?
उत्तर – उससे भी हीन अनुभाग वाली करता है। इसके लिये गाथा में संकेत किया है - 'हेट्ठा' अर्थात् जो सर्व जघन्य अनुभाग वाला स्पर्धक है, उसके नीचे करता है । अर्थात् उससे भी अनंत गुणहीन रस वाली किट्टियां करता है। तथा –
अणुसमयं सेढीए, असंखगुणहाणि जा अपुवाओ।
तव्विवरीयं दलियं, जहन्नगाई विसेसूणं॥५०॥ शब्दार्थ – अणुसमयं – प्रति समय, सेढीए – श्रेणी से, असंखगुणहाणि – असंख्यात गुणहाणि, जा – जो, अपुव्वाओ - अपूर्व (किट्टियां), तव्विवरीयं – उससे विपरीत, दलियं - दलिक, जहन्नगाई - जघन्य से ले कर, विसेसूणं - विशेष हीन।
- गाथार्थ - जो अपूर्व किट्टियां करता है, वे प्रति समय असंख्यात गुणहानि की श्रेणी से करता है और उनके दलिक विपरीत संख्या वाले होते हैं। जिन्हें जघन्य किट्टी से ले कर विशेष हीन हीन जानना चाहिये।
विशेषार्थ – जो अपूर्व अर्थात् प्रति समय नवीन नवीन किट्टियां करता है, उन्हें गणना की अपेक्षा प्रति समय असंख्यात गुणहानि की श्रेणी से जानना चाहिये और उनकी नवीनता उत्तरोत्तर अनन्त गुणहीन रस वाली जानना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है -
- प्रथम समय में बहुत किट्टियों को करता है, द्वितीय समय में उनसे असंख्यात गुणहीन किट्टियों को करता है, तृतीय समय में उनसे भी असंख्यात गुणहीन करता है । इस प्रकार किट्टिकरणाद्धा के चरम समय तक समझना चाहिये और दलिकों के लिये 'तव्विवरीय दलियं ' इत्यादि अर्थात् दलिक उससे विपरीत यानी किट्टी संख्या से विपरीत जानना चाहिये -
___ यथा – प्रथम समय में सम्पूर्ण किट्टीगत दलिक सबसे अल्प होते हैं, उससे द्वितीय समय में सकल किट्टिगत दलिक असंख्यात' गुणित होते हैं, उससे भी तृतीय समय में समस्त किट्टिगत दलिक असंख्यात गुणित होते हैं । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये जब तक कि किट्टिकरणाद्धा का चरम समय प्राप्त होता है। अब अनुभाग के लिये बताते हैं -
प्रथम समय में की गई किट्टियों में सामान्य रूप से अनुभाग सबसे अधिक होता है, द्वितीय समय में की गई किट्टियों में अनुभाग उससे अनंत गुणहीन होता है, उससे भी तृतीय समय में की गई १. यहां अनन्त गुणहीन पाठ युक्तिसंगत प्रतीत होता है।