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[ कर्मप्रकृति
उससे दूसरे समय में की गई किट्टियों के मध्य में जो सर्वाल्प प्रदेश वाली किट्टि है, वह असंख्यात गुणित प्रदेश वाली है, उससे भी तीसरे समय में की गई किट्टियों के मध्य में जो सर्वाल्प प्रदेश वाली किट्टि है, वह असंख्यात गुणित प्रदेश वाली है । इस प्रकार चरम समय प्राप्त होने तक कहना चाहिये तथा प्रथम समय में की गई किट्टियों के मध्य में जो सर्वमंद अनुभाग वाली किट्टि है वह वक्ष्यमाण किट्टियों की अपेक्षा सर्वाधिक अनुभाग वाली है, उससे दूसरे समय में की गई किट्टियों के मध्य में जो सर्वोत्कृष्ट अनुभाग वाली किट्टि है, वह अनन्त गुणहीन अनुभाग वाली है, उससे भी तीसरे समय में की गई किट्टियों के मध्य में जो सर्वोत्कृष्ट अनुभाग वाली किट्टि है, वह अनन्त गुणहीन अनुभाग वाली है। इस प्रकार चरम समय तक कहना चाहिये ।
'चाउम्मासाइ' इत्यादि अर्थात् मोहनीय कर्म में संज्वलन कषायों के चातुर्मासिक स्थितिबंध से ले कर अन्य स्थितिबंध संख्यातवें भाग से हीन हीनतर तब तक कहना चाहिये जब तक कि किट्टिकरणाद्धा के प्रथम समय में दिवसपृथक्त्व प्रमाण स्थितिबंध होता है । जिसे प्राय: पूर्व में कहा जा
भिन्नमुहुत्तो संखि-जेसु य घाईणि दिणपुहुत्तं ता । वाससहस्सपुहुत्तं, अंतो दिवसस्स अंते सिं ॥५२॥ वाससहस्सपुहुत्ता, बिवरसअंतो अघाइकम्माणं । लोभस अणुवसंतं, किट्टीओ जं च पुव्वुत्तं ॥ ५३ ॥ शब्दार्थ – भिन्नमुहुत्तो – अन्तर्मुहूर्त, संखिज्जेसु संख्यात, य घाति कर्मों का, दिणपुहुत्तं - दिवस पृथक्त्व, तु – और, वाससहस्सपुहुत्तं – वर्षसहस्रपृथक्त्व प्रमाण, अंतो दिवसस्स अन्तर्मुहूर्त और अन्तर्दिवस का, अंते - अंत में, सिं - उनका ।
और
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वर्ष सहस्रपृथक्त्व से, बिवरस अंतो वाससहस्सपुहुत्ता अघाइकम्माणं - अघातिकर्मों का, लोभस्स संज्वलन लोभ का, अणुवसंतं किट्टीओ - किट्टिगत दलिक, जं जो, च और, पुव्वुत्तं – पूर्व में कहा था ।
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दो वर्ष के अन्दर,
अनुपशांत,
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गाथार्थ संख्यात स्थितिबंधों के व्यतीत होने पर संज्वलन लोभ का अन्तर्मुहूर्त, शेष घातिकर्मों का दिवसपृथक्त्व और तीन अघाति कर्मों का वर्षसहस्रपृथक्त्व प्रमाण स्थितिबंध होता है, और अन्त में (किट्टिकरणाद्धा के अंत में ) उनका क्रमशः अन्तर्मुहूर्त, अन्तर्दिवस और अधाति कर्मों का वर्ष सहस्र से हीन हीनतर हो कर दो वर्ष के अन्दरप्रमाण वाला स्थितिबंध होता है। संज्वलन लोभ का किट्टिगत दलिक जो पहले कहा था, वह अभी अनुपशांत है ।