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उपशमनाकरण 1]
जघन्य भी उसके इतना ही होता है, लेकिन उत्कृष्ट स्थितिकंडक से वह जघन्य स्थितिकंडक अल्पतर जानना चाहिये। इसका आशय यह है कि अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट जीव का स्थितिघात उत्कृष्ट से भी पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण ही प्रवृत्त होता है, अधिक नहीं ।
अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में, उसके अप्रशस्त उपशमनाकरण, निघतिकरण और निकाचनाकरण विच्छिन्न हो जाते हैं । सहस्रों स्थितिघातों के व्यतीत होने पर बध्यमान प्रकृतियों का स्थितिबंध सागरोपम सहस्र पृथक्त्व प्रमाण रूप होता है । तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरण काल के संख्यातवें भागों के व्यतीत होने पर असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बंध तुल्य स्थिति बंध होता है । तदनन्तर स्थितिखंड पृथक्त्व व्यतीत होने पर चतुरिन्द्रिय के बंध समान स्थितिबंध होता है । उसके पश्चात पुनः स्थितिखंड पृथक्त्व बीतने पर त्रीन्द्रिय के बंध तुल्य स्थितिबंध होता है । तत्पश्चात् इसी प्रकार स्थितिखंड पृथक्त्व के बीतने पर द्वीन्द्रिय के बंध तुल्य स्थितिबंध होता है। उसके पश्चात् भी इसी प्रकार स्थितिखंड पृथक्त्व के व्यतीत होने पर एकेन्द्रिय के स्थितिबंध समान स्थितिबंध होता है। उससे ऊपर सहस्रों स्थितिबंधों के व्यतीत होने पर आयु को छोड़ कर सातों कर्मों का जो एक एक कार्य विशेष होता है, उसे आगे कहा जायेगा ।
अब होने वाले उस विशेष को कथन करते हैं
पल्लदिवढ्ढ विपल्लाणि, जाव पल्लस्स संखगुण हाणी । मोहस्स जाव पल्लं, संखेज्जइ भागहाऽमोहा ॥ ३७ ॥ तो नवरमसंखगुणा, एक्कपहारेण तीसगाणमहो । मोहे वीसग हेट्ठा य, तीसगाणुप्पि तइयं च ॥ ३८ ॥ तो तीसगाणमुप्पिं च, वीसगाई असंखगुणणाए । तईयं च वीसगाहि य, विसेसमहियं कमेणेति ॥ ३९ ॥
पल्ल
जाव
शब्दार्थ पल्योपम, दिवड - द्वि- अर्ध ( डेढ ), विपल्लाणि – दो पल्योपम, पर्यन्त, पल्लस्स पल्योपम के, संखगुणहाणी - संख्यात गुणहीन, मोहस्स मोहनीय का, जाव - पर्यन्त, पल्लं - पल्योपम, संखेज्जइ - संख्यात, भागहा भागहीन हीनतर, अमोहामोहनीय के अतिरिक्त ।
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तो नवरं तब विशेष, असंखगुणा – असंख्यात गुणा, एक्कपहारेण – एक प्रहार मात्र से, तीसगाणं तीस कोडाकोडी सागरोपम वालों से, अहो मोहनीय का, वीसग - बीस कोडाकोडी सागरोपम वालों, तीस कोडाकोडी सागरोपम वालों के ऊपर, तइयं
हेट्ठा
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नीचे, य और ।
तीसरे, च
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नीचे, मोहे और, तीसगाम्प