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अनिवृत्तिकरण में, य
सागरोपम, पुव्वकमा
शब्दार्थ - अंतोकोडाकोडी - अंत: कोडाकोडी प्रमाण, संतं - सत्तास्थिति, अनियट्टिणोऔर, उदहीणं - सागरोपम, बंधो - बंध, अन्तोकोडी पूर्व क्रम से हाणि – हानि, अप्पबहू - अल्पबहुत्व ।
अन्तः कोटि
गाथार्थ अनिवृत्तिकरण में (आयु) को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थितिसत्ता अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की होती है और बंध भी अंतः कोटि सागरोपम होता है । और पूर्वक्रम से उत्तरोत्तर दोनों हानि रूप होते हैं। इनका अल्पबहुत्व भी पूर्वक्रम से जानना चाहिये ।
विशेषार्थ – अनिवृतिकरण के प्रथम समय आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों का स्थितिसत्व अंत: कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण और बंध अंत कोडी सागरोपम प्रमाण होता है और यह बंध भी पूर्वक्रम से हानि रूप होता जाता है, यथा - एक स्थितिबंध के पूर्ण होने पर पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थितिबंध को करता है, इत्यादि रूप से उत्तरोत्तर हीन हीन नवीन स्थितिबंध करता है । बंधने वाले कर्मों के स्थितिबंध का अल्पबहुत्व भी पूर्व क्रम से ही जानना चाहिये, यथा
नाम और गोत्र कर्म में स्थितिबंध सबसे अल्प होता है, किन्तु स्वस्थान में दोनों का परस्पर तुल्य होता है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय का स्थितिबंध विशेषाधिक होता है, किन्तु स्वस्थान में परस्पर समान होता है। उससे चारित्रमोहनीय का विशेषाधिक अधिक है । यह अल्पबहुत्व अनिवृत्तिकरण में सर्वकाल ही जानना चाहिये, जब तक कि यह गुणस्थान पूर्ण होता है ।
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अंतोकोडाकोडी, संतं अनियट्टिणो य उदहीणं । बंधो अन्तोकोडी, पुव्वकमा हाणि अप्पबहू ॥ ३५ ॥
ठिकंडगमुक्कस्सं पि, तस्स पल्लस्स संखतम भागो । ठिइबंधबहुसहस्से, सेक्वेक्कं जं भणिस्सामो ॥ ३६ ॥
शब्दार्थ - ठिइकंडगं स्थिति कंडक, उक्कस्सं - उत्कृष्ट, पि भी, तस्स पल्लस्स पल्योपम का, संखतम भागो संख्यातवें भाग प्रमाण, ठिइबंध बहुसहस्से – बहुत से हजारों, सेक्वेक्कं - एक एक कर्म का,
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[ कर्मप्रकृति
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उसका,
स्थितिबंध,
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गाथार्थ उसका उत्कृष्ट स्थितिकंडक भी पल्योपम का संख्यातवें भाग प्रमाण है। बहुत से हजारों स्थितिबंध व्यतीत होने पर (आयु को छोड़ कर ) एक एक कर्म की जो भी विशेषता होती है उसे आगे कहेंगे ।
जं जो, भणिस्सामो – कहूंगा ।
विशेषार्थ
उस अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट चारित्रमोहनीय के उपशम करने वाले जीव के द्वारा घात किया जाने वाला उत्कृष्ट स्थितिकंडक पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण होता है और