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अनन्तानुबंधी - विसंयोजना
अब अनन्तानुबंधी कषायों की विसंयोजना की प्ररूपणा करते हैं ।
प्रश्न यहां चारित्र मोहनीय की उपशमना के अधिकार में अनन्तानुबंधी की विसंयोजना का विचार किसलिये किया जा रहा है ?
[ कर्मप्रकृति
उत्तर इसका कारण यह है कि जो जीव चारित्रमोहनीय का उपशम प्रारम्भ करता है, वह उसके पूर्व अवश्य ही अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करता है, इसलिये उसकी विसंयोजना का विचार किया जाना आवश्यक है । जो उपशमश्रेणी को प्राप्त नहीं भी हो रहे हैं ऐसे चतुर्गति के वेदकसम्यग्दृष्टि जीव भी अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करते हैं । इसी बात को अब आगे स्पष्ट करते हैं
चउगइया पज्जत्ता, तिन्नि वि संयोयणा विजोयंति ।
करणेहिं तीहिं सहिया, नंतरकरणं उवसमो वा ॥ ३१ ॥
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शब्दार्थ - चउगइया चारों गति के, पज्जत्ता - पर्याप्त, तिन्नि वि अविरत आदि तीनों ही, संयोयणा - संयोजना (अनन्तानुबंधी) की, विजोयंति - विसंयोजना करते हैं, करणेहिंकरणों, तीहिं – तीनों, सहिया - सहित, नंतरकरणं अन्तरकरण नहीं, उवसमो
उपशम,
वा - परन्तु ।
गाथार्थ - चारों गति के पर्याप्तक अविरत आदि तीनों ही तीनों करणों के साथ संयोजना की विसंयोजना करते हैं । किन्तु अन्तरकरण और उपशम नहीं करते हैं ।
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विशेषार्थ चारों गति के अर्थात् नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव जो सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त हैं और अविरत, देशविरत और सर्वविरत इन तीनों ही पद को प्राप्त हैं, वे अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करते हैं । इनमें अविरत सम्यग्दृष्टि तो चारों गति के देशविरत, तिर्यंच और मनुष्य गति के और सर्वविरत - मनुष्य गति के ही जीव संयोजना की अर्थात् अनन्तानुबंधी कषायों की विसंयोजना अर्थात् विनाश करते हैं ।
प्रश्न किस विशेषता से युक्त होते हुए विसंयोजना करते हैं ?
उत्तर
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- 'करणेहिं तीहिं सहिया' अर्थात् तीनों करणों' से युक्त होकर विसंयोजना करते हैं । तीनों करणों की व्याख्या पूर्ववत् जाननी चाहिये । विशेष यह है कि यहां अंतरकरण की क्रिया नहीं होती है और उपशम नहीं होता है। क्योंकि अनन्तानुबंधी कषायों का उपशम नहीं होता है। इसका १. यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ।