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[ कर्मप्रकृति
अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । इस सम्यक्त्व के प्राप्त कर लेने पर कोई जीव सम्यक्त्व के साथ देशविरति को अथवा सर्वविरति को प्राप्त होता है । शतक वृहच्चूर्णि में कहा भी है
"उवसमसम्मद्दिट्ठी अंतरकरणट्ठिओ कोइ देसविरयं पि लभेई कोई पमत्तपमत्तभावं पि सासायणो पुण न किं पि लहेइत्ति "
अर्थात् अंतरकरण में स्थित कोई औपशमिक सम्यग्दृष्टि देशविरत को भी प्राप्त करता है, और कोई प्रमत्त अप्रमत्त भाव को भी प्राप्त करता है, किन्तु सास्वादन गुणस्थान वाला इनमें से कुछ भी प्राप्त नहीं करता।
लेकिन औपशमिक सम्यक्त्व के काल में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छह आवलिका काल शेष रहने पर कोई जीव सास्वादनभाव को प्राप्त होता है । उसके अनन्तर वह नियम से मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है ।
अब सम्यग्दृष्टि का स्वरूप (विशेषता) बतलाते हैं
सम्मद्दिट्ठी जीवो, उवइटुं पवयणं तु सद्दह । सद्दहइ असम्भावं, अजाणमाणो, गुरुनियोगा ॥ २४ ॥ जीव, उवट्ठ उपदिष्ट, पवयणं श्रद्धान करता है, असम्भावं - असद्भाव
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शब्दार्थ – सम्मद्दिट्ठी - सम्यग्दृष्टि, जीवो प्रवचन का, तु - भी, सद्दहइ श्रद्धान करता है, सद्दहइ को, अजाणमाणो - नहीं जानता हुआ, गुरुनियोगा - गुरु के नियोग से ।
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गाथार्थ – सम्यग्दृष्टि जीव गुरु के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है और तत्त्व को नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भाव की भी श्रद्धा करता है ।
अब मिथ्यात्व के स्वरूप का कथन करते हैं
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विशेषार्थं – सम्यग्दृष्टि जीव गुरु के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का नियम से यथावत श्रद्धान करता है और यदि वह सम्यग्दृष्टि जीव असद्भाव अर्थात् असद्भूत प्रवचन की श्रद्धा भी करता है तो वह अवश्य ही स्वयं नहीं जानते हुए अर्थात् सम्यक् परिज्ञान से रहित होता हुआ करता है। अथवा उस प्रकार के सम्यक् परिज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि ( जमालि सदृश्) गुरु के नियोग आज्ञा की परतंत्रता से विपरीत श्रद्धान करता है, अन्यथा नहीं ।
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१. गाथा में पठित यह 'तु' शब्द एक विशेष आशय का द्योतक है कि कदाचित् सम्यग्दृष्टि असद्भूतत्व की श्रद्धा करता है तो अनजान स्थिति में या सुगुरु का योग न मिलने पर ।