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उपशमनाकरण ]
[ २७१ शब्दार्थ – उवसंतद्धा - उपशान्तद्धा, अंते – अंतिम समय में, विहिणा - विधि से, ओकड्डियस्स – अपकर्षित, दलियस्स – दलिक की, अज्झवसाणाणुरूवस्स – अध्यवसायानुरूप, उदओ - उदय, तिसु - तीन में से, एक्कयरयस्स – किसी एक का।
गाथार्थ – उपशान्तद्धा की अंतिम समयाधिक आवलिका में अपकर्षित दलिक की विधिपूर्वक निषेकरचना करता है और उसके पश्चात् अध्यवसायानुरूप उन तीन भेदों में से किसी एक का उदय हो जाता है।
विशेषार्थ - औपशमिक काल के अन्त में आवलिका काल शेष स्थिति में वर्तमान वह सम्यक्त्वी जीव द्वितीय स्थितिगत सम्यक्त्व आदि तीनों ही पुंजों के दलिकों को अध्यवसाय विशेष से आकर्षित कर अन्तरकरण की अंतिम आवलि में प्रक्षिप्त करता है तब प्रथमसमय में बहुत दलिक प्रक्षिप्त करता है। द्वितीय समय में उससे अल्प दलिक और तृतीय समय में उससे भी अल्पतर दलिक निक्षिप्त करता है। इस प्रकार तब तक निक्षिप्त करता है जब तक कि आवलिका का चरम समय प्राप्त होता है । इस प्रकार निक्षिप्त किये गये ये दलिक गोपुच्छ के आकार से स्थित होते हैं । तब अन्तरकरण का आवलिका मात्र काल शेष रहने पर उन तीनों पुंजों में से किसी एक दलिक (पुंज) का उदय होता है।
प्रश्न – किस प्रकार के दलिक का उदय होता है ?
उत्तर – अध्यवसाय के अनुरूप दलिक का उदय होता है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि उस समय शुभ परिणाम है तो सम्यक्त्वदलिक का उदय होगा। यदि मध्यम परिणाम है तो सम्यग्मिथ्यात्वदलिक का और यदि जघन्य परिणाम है तो मिथ्यात्वदलिक का उदय होता है। तथा –
सम्मत्तपढमलंभो, सव्वोवसमा तहा विगिट्ठो य।
छालिगसेसाए परं, आसाणं कोइ गच्छेज्जा॥ २३॥ शब्दार्थ – सम्मत्तपढमलंभो - सम्यक्त्व का प्रथम लाभ, सव्वोवसमा – सर्वोपशमना, तहा – तथा, विगिट्ठो - वृहत् स्थिति वाला, य - और, छालिगसेसाए परं – छह आवलिका काल शेष रहने पर, आसाणं – सास्वादन गुणस्थान को, कोइ - कोई, गच्छेजा – प्राप्त होता है।
गाथार्थ – औपशमिक सम्यक्त्व का प्रथम लाभ मिथ्यात्व की सर्वोपशमना से होता है और अपेक्षाकृत वृहत् स्थिति वाला होता है। छह आवलिका काल शेष रहने पर कोई जीव सास्वादन गुणस्थान को भी प्राप्त होता है।
विशेषार्थ – इस औपशमिक सम्यक्त्व का प्रथम लाभ मिथ्यात्व के सर्वोपशम से होता है, अन्य प्रकार से नहीं तथा यह प्रथम सम्यक्त्व का लाभ प्रथमस्थिति की अपेक्षा विप्रकर्ष - वृहत्तर