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[ कर्मप्रकृति
विशेषार्थ - औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होने के प्रथम समय से लेकर मिथ्यात्व के दलिक को गुणसंक्रम के द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रमित करता है । संक्रमित करने की विधि इस प्रकार है कि
प्रथम समय में सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति में अल्पदलिक निक्षिप्त करता है और उससे असंख्यात गुणित दलिक सम्यग्मिथ्यात्व ( मिश्रमोहनीय) में निक्षिप्त करता है। उससे भी द्वितीय समय में सम्यक्त्वमोहनीय में असंख्यात गुणित दलिकों का और उससे भी द्वितीय समय में सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यात गुणित दलिकों का निक्षेप करता है । इस प्रकार प्रतिसमय क्रम से तब तक करता है, जब तक कि अन्तर्मुहुर्तकाल पूर्ण होता है । इसके पश्चात विध्यातसंक्रम (जिसका स्वरूप पहले कहा जा चुका है) प्रवृत्त होता है, तथा
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शब्दार्थ - ठिइरसघाओ- स्थितिघात, रसघात, गुणसेढी – गुणश्रेणी, वि - भी, य - और, तावं प तब तक, आउवज्जाणं - आयुकर्म को छोड़कर, पढमठिइए – प्रथमस्थिति में, एगदुगावलिसेसत्ति - एक और दो आवलि शेष रहने तक, मिच्छत्ते - मिथ्यात्व में ।
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ठिइरसघाओ गुणसेढी वि य तावं पि आउवज्जाणं । पढमठिइए एग - दुगावलिसेस त्ति मिच्छत्ते ॥ २१ ॥
गाथार्थ - गुणसंक्रमण के प्रवर्तमान काल तक आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों का स्थितिघात, रसघात और गुणश्रेणी भी प्रवृत्त होती है । प्रथमस्थिति में एक आवलिका के शेष रहने तक मिथ्यात्व का स्थितिघात और रसघात होता है और दो आवलि के शेष रहने पर गुणश्रेणी होती रहती है। विशेषार्थ जब तक गुणसंक्रमण होता है, तब तक आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का स्थितिघात, रसघात और गुणश्रेणी होती है । गुणसंक्रम के निवृत्त हो जाने पर ये सभी निवृत्त हो जाते हैं और मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति में जब तक एक आवलिका शेष नहीं रहती है, तब तक मिथ्यात्व का स्थितिघात और रसघात होता रहता है । किन्तु एक आवलिका शेष रह जाने पर ये दोनों निवृत्त हो जाते हैं तथा प्रथमस्थिति में जब दो आवलि शेष नहीं रहती है तब तक मिथ्यात्व की
श्रेणी ही रहती है किन्तु दो आवलिका शेष रह जाने पर गुणश्रेणी निवृत्त हो जाती है ।
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इस प्रकार अन्तरकरण में प्रविष्ट हुआ वह जीव प्रथमसमय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक औपशमिक सम्यग्दृष्टि रहता है। तत्पश्चात् अब उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य को बतलाते हैं . उवसंतद्धा अंते, विहिणा ओकड्डियस्स दलियस्स । अज्झवसाणणुरूवस्सुदओ तिसु एक्कयरयस्स ॥ २२ ॥