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[ कर्मप्रकृति इस प्रकार सम्यक्त्व के उत्पाद की प्ररूपणा जानना चाहिये। चारित्रमोहनीय उपशमना
'अब चारित्रमोहनीय की उपशमना का विचार करते हैं। उसमें भी सर्वप्रथम जो जीव चारित्रमोहनीय की उपशमना का आरम्भ करता है, उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं -
वेयगसम्मद्दिट्ठी, चरित्तमोहुवसमाए चिट्ठतो (चेटुंतो)।
अजउ देसजई वा, विरतो व विसोहिअद्धाए॥ २७॥ शब्दार्थ – वेयगसम्मट्टिी - वेदकसम्यग्दृष्टि, चरित्तमोहुवसमाए – चारित्रमोहनीय की उपशमना के लिये, चिटुंतो (चेटुं तो) - उद्यत होता है, अजउ - अविरत, देसजई - देशविरत, वा - अथवा, विरतो - सर्व विरत, व – और, विसोहिअद्धाए – विशुद्धिअद्धा में (विशुद्धि काल में)।
गाथार्थ - अविरत, देशविरत, अथवा सर्वविरत और विशुद्धि के काल में वर्तमान ऐसा वेदक सम्यग्दृष्टि 'क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि' चारित्रमोहनीय की उपशमना के लिये उद्यत होता है।
विशेषार्थ – चारित्रमोहनीय की उपशमना के लिये चेष्टा करता - प्रयत्न करता है। कौन प्रयत्न करता है ? तो बतलाते हैं कि वेदकसम्यग्दृष्टि अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहनीय कर्म की उपशमना के लिये चेष्टा अर्थात् प्रयत्न करता है। किन्तु पूर्ववर्णित और औपशमिक सम्यक्त्व से युक्त जीव प्रयत्न नहीं करता है। वह वेदकसम्यग्दृष्टि, अविरत, देशविरत अथवा सर्वविरत होता है। इन तीनों ही प्रकार के जीवों के प्रत्येक के दो दो अद्धा काल होते हैं – संक्लेश-अद्धा और विशुद्धिअद्धा। इनमें से विशुद्धि-अद्धा में वर्तमान जीव ही चारित्रमोहनीय के उपशमन के लिये यत्न करता है, संक्लेश अद्धा में वर्तमान जीव नहीं करता है। अविरत, देशविरत और सर्वविरत के लक्षण इस प्रकार हैं -
अण्णाणाण - एभुवगम - जयणाहजओ अवजविरईए। एगव्वयाइ चरिमो, अणुमइमित्तो त्ति देसजई॥२८॥ अणुमइविरओय जई, दोण्ह वि करणाणि दोण्हि न उ तईयं।
पच्छा गुणसेढी सिं तावइया आलिगा उप्पिं ॥ २९॥ शब्दार्थ – अण्णाणाण - एभुवगम - जयणाहजओ – अज्ञान, अनुभ्यपगम और अयतना द्वारा अविदित होता है, अवजविरईए – पाप की विरति से, एगव्वयाइ – एक व्रत ग्रहणादि से, चरिमो – अंतिम, अणुमइमित्तो त्ति – अनुमति मात्र तक, देसजई – देशविरत। .