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उपशमनाकरण ]
शब्दार्थ उवइट्ठे - उपदिष्ट, पवयणं
करता है, असम्भावं
अनुपदिष्ट ।
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में, वा व्यंजनावग्रह में, य
चाहिये ।
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मिच्छादिट्ठी नियमा, उवइट्टं पवयणं न सद्दहइ । सद्दहइ असम्भावं, उव्वइटुं वा अणुवइटुं ॥ २५ ॥
मिच्छादिट्ठी मिथ्यात्व दृष्टि,
अथवा, तहा
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नियमा
प्रवचन को, न – नहीं, सद्दहइ असद्भूत अर्थ के, उव्वइट्ठ
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अन्य के द्वारा उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट असद्भूत अर्थ की श्रद्धा करता है ।
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नियम से (निश्चित रूप से),
श्रद्धान करता है, सद्दहइ
श्रद्धान
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गाथार्थ मिथ्यादृष्टि जीव नियम से जिनोपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता है, किंतु
उपदिष्ट, वा
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विशेषार्थ - मिथ्यादृष्टि जीव गुरुजनों के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का नियम से ( निश्चित रूप से) श्रद्धान नहीं करता है । अर्थात् उसे सम्यक् भाव से आत्मा में परिणत नहीं करता है। यदि उपदिष्ट या अनुपदिष्ट प्रवचन की श्रद्धा भी करता है तो असद्भूत अर्थात् मिथ्यारूप तत्त्व की ही श्रद्धा करता है, यथार्थ तत्त्व की श्रद्धा नहीं करता है ।
अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि ) की स्थिति बतलाते हैं।
सम्मामिच्छद्दिट्ठी, सागारे वा तहा
अणागारे ।
अहवंजणोग्गहम्मिय सागारे होइ नायव्वो ॥ २६ ॥
शब्दार्थ - सम्मामिच्छद्दिट्ठी - सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि ), सागारे साकारोपयोग तथा, अणगारे अनाकार उपयोग में, अह - यदि, वंजणोग्गहम्मि -
और, साग
साकार उपयोग में, होइ – होता है, नायव्वो
जानना
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[ २७३
अथवा, अणुव
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गाथार्थ – सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव साकार अथवा अनाकार उपयोग में वर्तमान होता है। यदि साकारोपयोग में हो तो व्यंजनावग्रह में वर्तमान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव किस उपयोग में वर्तमान रहता है ? यदि इसका चिंतन किया जाये तो वह साकारोपयोग में भी रहता है अथवा अनाकारोपयोग में भी रहता है । यदि साकारोपयोग में वर्तमान हो तो व्यवहारिक अव्यक्त ज्ञानरूप व्यंजनावग्रह में ही रहता है, अर्थावग्रह में नहीं । क्योंकि संशयज्ञानी के समान सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव जिनप्रवचन के अनुराग और विद्वेष से रहित कहा गया है, किन्तु सम्यक् निश्चय ज्ञानी ( जिन प्रवचन के अनुराग से विकल) नहीं होता है और संशयज्ञानी की समानता व्यंजनाग्रह में ही संभव है।