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उपशमनाकरण ]
[ २६३ निरन्तर जघन्य विशुद्धिस्थान अनन्तगुणी वृद्धि रूप में नहीं कहना चाहिये। किन्तु प्रथम समय में सर्वप्रथम सबसे अलग जघन्य विशुद्धि कहना चाहिये, वह भी यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में होने वाले उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान से अनन्तगुणी होती है। उससे प्रथम समय में ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, उससे भी द्वितीय समय में जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, उससे भी द्वितीय समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, उससे भी तृतीय समय में जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, उससे भी तृतीय समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इस प्रकार प्रति समय तब तक कहना चाहिये, जब तक कि अपूर्वकरण के चरम समय में उत्कृष्ट विशुद्धि प्राप्त होती है।
___ अब अनन्तगुणी विशुद्धि होने के साथ-साथ अपूर्वकरण में होने वाले अन्य कार्यों को बतलाते हैं -
निव्वयणमवि ततो से, ठिइरसघायठिइबंधगद्धा उ।
गुणसेढी वि य समगं, पढमे समये पवत्तंति ॥ १२॥ शब्दार्थ – निव्वयणमवि – निर्वचन भी (नाम की सार्थकता का दर्शक वचन) ततो - तत्पश्चात्, से - उसका (अपूर्वकरण का), ठिइरसघाय – स्थितिरसघात, ठिइबंधगद्धा – स्थिति बंधाद्धा, उ – तथा, गुणसेढीवि – गुणश्रेणी भी, य - और, समगं - एक साथ, पढमे समए - प्रथम समय में, पवत्तंति - प्रारम्भ होते हैं।
गाथार्थ – तत्पश्चात् अपूर्वकरण का निर्वचन करते हैं कि उसमें अपूर्वकरण में प्रवेश करते हुये जीव के स्थितिघात, रसघात, स्थितिबंधाद्धा गुणश्रेणी सभी एक साथ प्रथम समय में प्रारम्भ होते
हैं।
विशेषार्थ – तदनन्तर उस अपूर्वकरण का निर्वचन अर्थात् निश्चय रूप सार्थक वचन कहना चाहिये, यथा अपूर्वकरण अर्थात् स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, स्थितिबंध आदि के नवीन कार्य जिसमें हों, उसे अपूर्वकरण कहते हैं - अपूर्वाणि अपूर्वाणि करणानि स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिस्थितिबंधादीनां निवर्तनानि यस्मिन् तत् अपूर्वकरणं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
अपूर्वकरण में प्रवेश करता हुआ जीव प्रथम समय में ही अन्य स्थितिघात को अन्य रसघात को, अन्य गुणश्रेणी और अन्य स्थितिबंध को एक साथ प्रारम्भ करता है। इसीलिये गाथा में 'ठिईरस' इत्यादि पद कहे गये हैं अर्थात् स्थितिघात, रसघात, स्थितिबंधकाल और गुणश्रेणी यह चारों ही पदार्थ समक अर्थात् एक साथ प्रथम समय में प्रारम्भ होते हैं।
१. इसका प्रारूप परिशिष्ट में देखिये।