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[ कर्मप्रकृति
विशेषार्थ – प्रस्तुत प्रसंग में सूक्ष्म निगोदिया जीवों का ग्रहण इसलिये किया है कि वे जीव अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोद में अर्थात् सूक्ष्म अनन्तकायिक जीवों में रहने से अत्यल्प आयु वाले होते हैं। जिससे बहुत जन्म मरण होने से वे वेदना के कारण अधिक पीड़ित होते हैं और इस कारण उनके बहुत अधिक कर्म पुद्गलों की निर्जरा होती है तथा इन्हीं के योगों और कषायों की मंदता भी होती है, जिससे नवीन कर्म पुद्गलों का ग्रहण भी अल्पतर होता है तथा 'अभविय जोग्गं जहन्नयं कट्ट निग्गम्मत्ति' अर्थात् अभव्य जीवों के योग्य जघन्य प्रदेशों का संचय करके पश्चात् सूक्ष्म निगोद से निकलकर सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति के योग्य त्रसों में उत्पन्न हो कर पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने असंख्यात बार तक सम्यक्त्व को और अल्पकालिक देशविरति को प्राप्त कर।
किस प्रकार प्राप्त कर ? तो इसका उत्तर है कि - सूक्ष्म निगोद से निकल कर बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हुआ, वहां से अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा निकलकर पूर्व कोटि की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां पर ही शीघ्र ही सात मास के अनन्तर योनि से निकल कर उत्पन्न हुआ, पुनः आठ वर्ष का हो कर संयम को धारण किया, तत्पश्चात् देशोन पूर्व कोटि तक संयम का पालन कर जीवन के अल्प शेष रह जाने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और तब मिथ्यात्व के साथ ही मरण को प्राप्त हो कर दस हजार वर्ष प्रमाण वाली स्थिति के देवों में देवरूप से उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त काल बीतने पर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् दस हजार वर्ष जीवित रह कर और उतने काल तक सम्यक्त्व को पाल कर जीवन के अंत में मिथ्यात्व के साथ मरण कर बादर पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात अन्तर्मुहूर्त काल में वहां से निकल कर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। तब पुनः सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति को प्राप्त हुआ, इस प्रकार देव और मनुष्य के भवों में सम्यक्त्व को ग्रहण करता और छोड़ता हुआ तब तक कहना चाहिये जब तक पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने असंख्यात बार तक सम्यक्त्व का लाभ और अल्पकालिक देशविरति का लाभ होता है।
यहां पर जब जब सम्यक्त्व आदि को प्राप्त करता है तब तब बहुत कर्मप्रदेश वाली प्रकृतियों को अल्प प्रदेश वाली करता है, यह बतलाने के लिये ही बहुत बार सम्यक्त्व आदि के ग्रहण करने का निर्देश किया गया है। इन सम्यक्त्व आदि के योग्य भवों के मध्य में आठ बार सर्वविरति को प्राप्त करता है और उतनी ही बार (आठ बार) संयोजना अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय की विसंयोजना करके तथा चार बार मोहनीय कर्म का उपशमन कर उससे अन्य भव में शीघ्र ही कर्मों का क्षपण करने वाला क्षपितकर्मांश' कहलाता है। १. अन्य सर्व जीवों से अत्यल्प कर्म प्रदेश की सत्ता वाले जीव को क्षपितकांश कहते हैं। इन तीन गाथाओं में यह बताया गया है कि किन किन संयोगों को प्राप्त हुआ जीव अन्य सर्व जीवों की अपेक्षा अत्यल्प कर्म प्रदेशों की सत्ता वाला होता है। ..