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उद्वर्तना - अपवर्तनाकरण ]
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परन्तु कृष्टिकृत दलिक में अपवर्तना ही होती है।
विशेषार्थ – 'आबंधा' जब तक बंध होता है तब तक उद्वर्तना होती है। बंध के अभाव में उद्वर्तना नहीं होती है तथा सर्वत्र अर्थात् बंध करने के समय अथवा अबंध काल में स्थिति और अनुभाग की अपवर्तना होती है। यह काल नियम है।
अथवा 'आबंधा' अर्थात् जितना मात्र स्थितिबंध है तावत् मात्र स्थिति सत्कर्म की स्थिति - उद्वर्तना और अनुभाग - उद्वर्तना होती है। उससे उपरितन कर्म की स्थिति और अनुभाग उद्वर्तना नहीं होती है किन्तु अपकर्षणा अर्थात् अपवर्तना सर्वत्र बंध प्रमाण से पहले और पीछे भी स्थिति और अनुभाग में होती रहती है।
कृष्टि वर्जित कर्मदलिक में उद्वर्तना और अपवर्तना दोनों होती हैं किन्तु कृष्टिकृत दलिक में केवल अपवर्तन ही होती है, उद्वर्तना नहीं। यह विषयकृत नियम है।
इस प्रकार उद्वर्तना और अपवर्तनाकरण - अधिकार सम्पूर्ण हुआ।