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[ कर्मप्रकृति
की विशुद्ध्यमान अप्रमत्त भाव के अभिमुख प्रमत्तसंयत के जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है तथा क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले वेदक सम्यक्त्वी अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी के मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के क्षय कर देने पर और सम्यक्त्वमोहनीय के क्षपण काल में समयाधिक आवलिका काल स्थिति शेष रहने पर प्रवर्तमान उदीरणा के समय जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। और यह जघन्य अनुभाग उदीरणा चारों गतियों में से किसी भी एक गति वाले जीव के जानना चाहिये।
तथा -
सेकाले सम्मत्तं, ससंजमं गिण्हओ य तेरसगं।
सम्मत्तमेव मीसे, आऊण जहन्नगठिईसु॥७२॥ शब्दार्थ – सेकाले – अनन्तर समय में, सम्मत्तं – सम्यक्त्व को, ससंजमं – संयम सहित, गिण्हओ – ग्रहण करने वाले, य - और, तेरसगं – तेरह प्रकृतियों की ही, सम्मत्तमेवसम्यक्त्व को ही, मीसे – मिश्र दृष्टि के, आऊण - आयुकर्मों की, जहन्नगठिईसु - जघन्य स्थिति
में।
गाथार्थ – अनंतर समय में संयम सहित सम्यक्त्व को ग्रहण करने वाले जीव के मिथ्यात्व आदि तेरह प्रकृतियों की तथा अनन्तर समय में सम्यक्त्व को ही प्राप्त करने वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि के मिश्रप्रकृति की जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। आयुकर्मों की अपनी अपनी स्थिति में वर्तमान जीव के जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है।
विशेषार्थ – 'सेकाले' अर्थात् अनंतर काल में यानि दूसरे समय में संयम सहित सम्यक्त्व को ग्रहण करने वाला है ऐसे जीव के मिथ्यात्व अनन्तानुबंधीकषायचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क
और प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क इन तेरह प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। इस का सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि -
जो मिथ्यादृष्टि अनन्तर समय में संयम सहित सम्यक्त्व को ग्रहण करेगा उस मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषायों की तथा जो अविरत सम्यग्दृष्टि अनन्तर समय में संयम को प्राप्त करेगा, उसके अप्रत्याख्यानावरण कषायों की और जो देशविरत अनन्तर समय में सर्वसंयम को ग्रहण करेगा उसके प्रत्याख्यानावरण कषायों की जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है।
मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि अनंत गुण विशुद्ध होता है, उससे भी देशविरत अनन्तगुण विशुद्ध होता है, इस कारण उक्त क्रम से ही जघन्य अनुभाग-उदीरणा संभव है।
'सम्मत्तमेवमीसे' अर्थात् जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि अनंतर समय में सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेगा