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[ कर्मप्रकृति
इन पांच मूल प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा गुणितकर्यांशिक जीव के अपनी-अपनी उदीरणा के अंतिम समय में पाई जाती है। वह सादि और अध्रुव है। उससे अन्य सभी प्रदेश - उदीरणा अनुत्कृष्ट होती है और वह ध्रुव - उदीरणा रूप होने से अनादि है, ध्रुव, अध्रुव विकल्प अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये ।
वेदनीय और मोहनीय इन दो कर्मों की अनुत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा चार प्रकार की होती है। यथा - सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । वह इस प्रकार है।
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वेदनीय की उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा अप्रमत्तभाव के अभिमुख सर्व विशुद्ध प्रमत्तसंयत के होती है और मोहनीय की उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा सूक्ष्मसंपराय के अपनी उदीरणा के अंतिम समय में, इसलिये इन दोनों कर्मों की यह उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा सादि और अध्रुव है। उससे अन्य सभी प्रदेश उदीरणा अनुत्कृष्ट है । वह भी अप्रमत्त गुणस्थान से गिरने वाले जीव के वेदनीय की और उपशांतमोह गुणस्थान से गिरने वाले जीव के मोहनीय की सादि होती है तथा इस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले जीव के दोनों की अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा अनादि होती है। ध्रुव और अध्रुव विकल्प पूर्ववत् अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये ।
'सेसविगप्पा दुविहा इति' अर्थात् इन सातों ही मूल प्रकृतियों के ऊपर कहे गये विकल्पों के अतिरिक्त जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट रूप शेष विकल्प दो प्रकार के होते हैं, यथा- सादि और अध्रुव । इस प्रकार हैं कि
इन सातों मूल कर्म प्रकृतियों की जघन्य प्रदेश - उदीरणा अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि होती है और वह सादि तथा अध्रुव है। संक्लेश परिणाम से च्युत हुए मिथ्यादृष्टि के अजघन्य प्रदेशउदीरणा होती है। इसलिये वह भी सादि और अध्रुव है । उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा का ऊपर विचार किया जा चुका है।
आयुकर्म के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये सभी विकल्प दो प्रकार के होते हैं, सादि और अध्रुव । यह सादिता और अध्रुवता अध्रुव - उदीरणा रूप होने से जानना चाहिये । इस प्रकार से मूलकर्मप्रकृतियों की सादि, अनादि प्ररूपणा करने के बाद अब उत्तरप्रकृतियों की सादि - अनादि प्ररूपणा करते हैं
यथा
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शब्दार्थ
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मिच्छत्तस्स चउद्धा, सगयालाए तिहा अणुक्कोसा ।
सेसविगप्पा दुविहा सव्वविगप्पा य सेसाणं ॥ ८१ ॥ मिच्छत्तस्स
मिथ्यात्व की, चउद्धा चार प्रकार की, सगयालाए