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[ कर्मप्रकृति
यह करणकृत और अकरणकृत रूप दोनों ही भेद देशोपशमना के जानना चाहिये, सर्वोपशमना नहीं। क्योंकि वह तो यथाप्रवृत्तादि करणों से ही होती है। पंचसंग्रह मूल की टीका में कहा भी है‘देशोपशमना करणकृता रहिता च, सर्वोपशमना तु करणकृतैवेति' अर्थात् देशोपशमना करणकृत भी होती है और करण रहित भी, किन्तु सर्वोपशमना करणकृत ही होती है।
इस करणकृत उपशमना के दो नाम हैं, यथा- अकरणोपशमना, अनुदीरणोपशमना । इन दोनों में से वर्तमान में अकरणोपशमना का अनुयोग विच्छिन्न हो गया है। इसलिये ग्रन्थकार आचार्य ने स्वयं उसके अनुयोग को नहीं जानने से उसके जानने वाले विशिष्ट बुद्धिप्रभा से संपन्न चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता आचार्यों को नमस्कार करते हुए 'विइयाए' इत्यादि पद कहा है। जिसका आशय यह है कि दूसरी जो अकरणकृत उपशमना है और अकरण एवं अनुदीर्ण रूप दो नाम वाली हैं, उसके अनुयोगधरों अर्थात् उसकी व्याख्या करने में कुशल आचार्यों को मैं नमस्कार करता हूँ ।
करणकृत उपशमना के भेद
अकरणकृत उपशमना के विचार अनुपलब्ध होने से यहां पर करणकृत उपशमना का ही विचार किया जा रहा है। वह दो प्रकार की है, जिसके भेदों का नाम बताने के लिये ग्रंथकार कहते हैं -
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शब्दार्थ - सव्वस्स - सर्वविषयक, य और देसस्स – देश ( एक देश भाग) विषयक, और, करणुवसमणा - करणोपशमना, दुसन्नि – दो संज्ञा नाम वाली, एक्किक्का – एक एक प्रत्येक, सव्वस्स - सर्वविषयक, गुणपसत्था - गुणोपशमना, प्रशस्तोपशमना, देसस्स - देशविषयक, वि भी, तासि - इनके, विवरीया
विपरीत ।
य
सव्वस्स य देसस्स य करणुवसमणा दुसन्नि एक्किक्का । सव्वस्स गुणपसत्था, देसस्स वि तासि विवरीया ॥ २ ॥
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थार्थ करणोपशमना सर्वविषयक और देशविषयक इस प्रकार दो नाम वाली है। इन दोनों में से भी एक-एक के दो-दो नाम है, यथा सर्वोपशमना के गुणोपशमना और प्रशस्तोपशमना यह दो नाम हैं और देशोपशमना के इन से विपरीत नाम जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - करणकृत उपशमना दो प्रकार की है- सर्वविषयक और देशविषयक, अर्थात् सर्वविषयोपशमना और देशविषयोपशमना । इन दोनों में से भी प्रत्येक के दो नाम हैं, यथा - सर्वोपशमना के गुणोपशमना और प्रशस्तोपशमना यह दो नाम हैं तथा देशविषयक अर्थात् देशोपशमना के पूर्वोक्त सर्वोपशमना के नामों से विपरीत दो नाम है, यथा अगुणोपशमना और अप्रशस्तोपशमना ।