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६ : उपशमनाकरण
उदीरणाकरण का विवेचन करने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त उपशमनाकरण का विचार करते हैं। उस में निम्न आठ अर्थाधिकार हैं - १. प्रथम सम्यक्त्व - उत्पाद प्ररूपणा, २. देशविरति-लाभ प्ररूपणा, ३. सर्वविरति-लाभ प्ररूपणा, ४. अनन्तानुबंधी विसंयोजना, ५. दर्शनमोहनीय क्षपण, ६.दर्शनमोहनीय-उपशमना, ७. चारित्रमोहनीय-उपशमना और ८. सप्रभेद देशोपशमना।
उपशमनाकरण का सर्व भेद-प्रभेद सहित पूर्ण रूपेण व्याख्यान करना अशक्य है। अतः जिस अंश में व्याख्यान करने की अपनी अशक्ति है, उस अंश के लिये उसके ज्ञाता आचार्यों - महर्षियों को नमस्कार करते हुए ग्रंथकार आचार्य कहते हैं -
करणकया अकरणा, वि य दुविहा उवसामण त्थ बिइयाए।
अकरण अणुइन्नाए, अणुओगधरे पणिवयामि॥१॥ शब्दार्थ - करणकया - करणकृत, अकरणा - अकरणकृत, वि - भी, य - और, दुविहा – दो प्रकार की, उवसामणा - उपशमना, त्थ - और, बिइयाए – दूसरी, अकरण - अकरणकृत, अणुइनाए – अणुदीर्ण, अणुओगधरे - अनुयोगधरों, पणिवयामि – प्रणाम (नमस्कार) करता हूँ।
___ गाथार्थ – करणकृत और अकरणकृत के भेद से उपशमना दो प्रकार की है। इनमें से जो दूसरी अकरणकृत अणुदीर्ण नाम वाली उपशमना है, उसको नहीं जानने वाला मैं उसके अनुयोगधर आचार्यों को नमस्कार करता हूँ।
विशेषार्थ – उपशमना दो प्रकार की है - १. करणकृत और २. अकरणकृत। यहां करण नाम क्रिया है, अर्थात् यथाप्रवृत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के द्वारा साध्य होने वाली क्रियाविशेष से जो की जाये, उसे करणकृत उपशमना कहते हैं - तत्र करणं क्रिया यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणसाध्यः क्रियाविशेषः तेन कृता करणकृता। उससे विपरीत अर्थात् जो यथाप्रवृत्त आदि करणविशेषों से न की जाये, उसे अकरणकृत उपशमना कहते हैं।
संसारी जीवों के गिरि नदी के पाषाणों में होने वाली वृत्तता (गोलाई) आदि होने के समान यथाप्रवृत्त आदि करण रूप क्रियाविशेष के बिना ही वेदना के अनुभव आदि कारणों से जो उपशमना होती है, वह अकरणकृत उपशमना कहलाती है।