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सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव जघन्य प्रदेश उदीरणा का स्वामी है ।
अपर्याप्त नामकर्म का सर्व संक्लिष्ट और चरम समय में वर्तमान अपर्याप्त मनुष्य जघन्य प्रदेश उदीरणा करता है।
[ कर्मप्रकृति
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातियों की यथाक्रम से सर्व संक्लिष्ट द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव जघन्य प्रदेश उदीरणा के स्वामी होते हैं ।
'अणुभागुत्तो य तित्थयरे' इत्यादि अर्थात् तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य प्रदेश उदीरणा का स्वामी जो पहले जघन्य अनुभाग उदीरणा का स्वामी कहा गया है, वही जानना चाहिये ! अर्थात् तीर्थंकर केवली जब तक आयोजिकाकरण प्रारंभ नहीं करते हैं, तब तक तीर्थंकर नामकर्म के जघन्य प्रदेश उदीरक जानना चाहिये । तथा
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ओहीणं ओहिजुए, अइसुहवेईय आउगाणं तु । पढमस्स जहण्णठिई सेसाणुक्कोसगठिइओ ॥ ८९ ॥ शब्दार्थ ओहीणं - अवधिद्विक आवरण की, ओहिजुए अवधि लब्धि युक्त, अइसुहवेईय - अति सुखद वेदक, आउगाणं- आयु कर्मों की, तु किन्तु, पढमस्स जहण्णठिई - जघन्य स्थिति, सेसाणुक्कोसगठिइओ - शेष की उत्कृष्ट स्थिति वाले ।
प्रथम की,
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गाथार्थ अवधद्विक आवरण की जघन्य प्रदेश उदीरणा अवधिलब्धि युक्त जीव करता है । आयु कर्मों की जघन्य प्रदेश उदीरणा अति सुख के वेदक जीव करते हैं । किन्तु इतना विशेष है कि इनमें प्रथम आयु (नरकायु) की जघन्य स्थिति वाला नारक और शेष आयुकर्मत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति वाले जीव जघन्य प्रदेश उदीरणा करते हैं ।
विशेषार्थ - अवधिज्ञानावरण, और अवधिदर्शनावरण की जघन्य प्रदेश उदीरणा का स्वामी लब्धि से युक्त सर्व संक्लिष्ट जीव है । अवधिद्विक को उत्पन्न करने वाले जीव के बहुत कर्म पुद्गल क्षय को प्राप्त हो जाते हैं । इसलिये अवधिलब्धि पद का ग्रहण किया गया है।
चारों ही आयु कर्मों की जघन्य प्रदेशों के उदीरक अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार अ सुख के अनुभव करने वाले जीव होते हैं। इनमें प्रथम नरकायु का उदीरक दस हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थिति में वर्तमान नारकी जीव होता है, क्योंकि वह शेष नारकों की अपेक्षा अति सुखी है और शेष तिर्यंचायु मनुष्यायु देवायु की उत्कृष्ट स्थिति में वर्तमान और अपनी-अपनी योग्यतानुसार चरम सुखी यथाक्रम से तिर्यंच, मनुष्य और देव जघन्य प्रदेश उदीरणा के स्वामी जानना चाहिये ।
इस प्रकार उदीरणाकरण का समस्त विवेचन जानना चाहिये ।
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