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[ कर्मप्रकृति
देवनिरयाउगाणं, जहन्नजेट्टट्टिई गुरु असाए।
इयराऊण वि अट्ठम - वासे णेयो अट्ठवासाऊ॥८४॥ शब्दार्थ – देवनिरयाउगाणं - देवायु, नरकायु की, जहन्न - जघन्य, जेट्ठिई – उत्कृष्ट स्थिति, गुरुअसाए - उत्कृष्ट असाता (दुःख) के उदय में, इयराऊण - इतर आयुयों (मनुष्य तिर्यंचायु) की, वि - भी, अट्ठमवासे - आठवें वर्ष में, णेयो – जानना चाहिये, अट्ठवासाऊ – आठ वर्ष की आयु वाले के।
गाथार्थ – जघन्य स्थिति वाले उत्कृष्ट असाता (दुःख) के उदय में वर्तमान देव के देवायु की तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट असातोदय में वर्तमान नारक के नरकायु की एवं आठवें वर्ष में वर्तमान आठ वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंचों के क्रमशः मनुष्यायु और तिर्यंचायु की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है।
विशेषार्थ – जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति वाले गुरु (उत्कृष्ट) दुःखोदय में वर्तमान देव और नारक यथाक्रम से देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने वाले जानना चाहिये। इसका आशय यह है कि दस हजार वर्ष की आयु स्थिति वाला, प्रकृष्ट दुःख के उदय में वर्तमान देव देवायु का उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक होता है तथा तेतीस सागरोपम की आयु स्थिति वाला और प्रबल दुःख के उदय में वर्तमान नारक नरकायु का उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक होता है। बहुत दुःख का अनुभव करने वाला बहुत से पुद्गलों की निर्जरा करता है, इसलिये गाथा में 'गुरुअसाये' पद दिया है।
'इयराऊण' अर्थात् इतर आयु जो तिर्यंचायु और मनुष्यायु हैं, उनकी यथाक्रम से आठ वर्ष की आयु वाले और आठवें वर्ष में वर्तमान तथा प्रकृष्ट दुःख के उदय से युक्त तिर्यंच और मनुष्य उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक होते हैं। तथा –
एगंततिरियजोग्गा नियगविसिढेसु तह अपजत्ता।
संमुच्छिममणुयंते तिरियगई देसविरयस्स॥८५॥ शब्दार्थ – एगंततिरियजोग्गा - एकान्त रूप से, तिर्यंच योग्य, नियगविसिटेसु - अपनी-अपनी प्रकृति विशिष्ट जीवों के, तह – यथा, अपजत्ता - अपर्याप्त की, संमुच्छिममणुयंतेसंमूछिम मनुष्य को अन्त समय में, तिरियगई – तिर्यंचगति, देसविरयस्स – देशविरत के।
गाथार्थ – एकान्त रूप से तिर्यंच योग्य प्रकृतियों की अपनी-अपनी प्रकृति विशिष्ट जीवों के तथा अपर्याप्त नाम की संमूछिम मनुष्य के अंतिम समय में और तिर्यंचगति की देशविरत के उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा होती है।