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उदीरणाकरण ]
[ २४५ इस प्रकार पृथक्-पृथक् रूप से सभी प्रकृतियों के उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग की उदीरणा के स्वामी का कथन करने के अनन्तर अब सामान्य रूप से सभी प्रकृतियों के उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग की उदीरणा के स्वामित्व का ज्ञान कराने के लिये उपाय का निर्देश करते हुए कहा है -
'पच्चय' इत्यादि अर्थात् प्रत्यय-परिणामप्रत्यय और भवप्रत्यय तथा प्रकृतियों का शुभत्व और अशुभत्व तथा पुद्गलविपाकी आदि चार प्रकार का विपाक, इन सब का भलीभांति चिंतन करके जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के स्वामी यथावत् जानना चाहिये। जिसका यह आशय है कि -
परिणामप्रत्यय वाली अनुभाग-उदीरणा प्रायः उत्कृष्ट और भवप्रत्यय वाली अनुभाग-उदीरणा जघन्य होती है और विशुद्धि के समय अशुभ प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। इससे विपरीत दशा में उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है, इत्यादि स्वयं विचार कर उस उस प्रकृति के उदय वाले जीव के जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा का स्वामित्व जानना चाहिये।
इस प्रकार अनुभाग उदीरणा का विवेचन समझना चाहिये। प्रदेश उदीरणा
अब प्रदेश-उदीरणा का कथन करते हैं। इसके दो अधिकार हैं, यथा १. सादि-अनादि प्ररूपणा और २. स्वामित्व-प्ररूपणा। सादि-अनादिप्ररूपणा के भी दो प्रकार होते हैं - मूलप्रकृति विषयक और उत्तर प्रकृतिक विषयक, इनमें से पहले मूलप्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा को कहते हैं।
पंचण्हमणुक्कोसा तिहा पएसे चउव्विहा दोण्हं।
सेसविगप्पा दुविहा सव्व विगप्पा य आउस्स ॥८०॥ शब्दार्थ – पंचण्हं – पांच कर्मों की, अणुक्कोसा - अनुत्कृष्ट, तिहा – तीन प्रकार की, चउव्विहा - चार प्रकार की, दोण्हं - दो की, सेसविगप्पा – शेष विकल्प, दुविहा – दो प्रकार के, सव्व विगप्पा - सर्व विकल्प, य - और, आउस्स - आयु के।
गाथार्थ – पांच कर्मों की अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा तीन प्रकार की है। दो कर्मों की चार प्रकार की है। शेष विकल्प दो प्रकार के हैं और आयुकर्म के सभी विकल्प चार प्रकार के होते हैं।
विशेषार्थ – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र और अन्तराय इन पांच मूल कर्म प्रकृतियों की प्रदेश विषयक अनुत्कृष्ट-उदीरणा तीन प्रकार की है, यथा – अनादि, ध्रुव, अध्रुव । वह इस प्रकार कि -