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[ कर्मप्रकृति
इकतीस अशुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान और सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीव के होती है।
'ओहीणं' अर्थात् अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण रूप अवधिद्विक की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा भी अनवधिलब्धिक अर्थात् अवधिलब्धि से रहित चारों गतियों के उसी मिथ्यादृष्टि के होती है। अर्थात् उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान और सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीव के अवधिद्विक की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है। यहां गाथा में 'अणोहिलद्धिस्स' अर्थात् अनवधिलब्धिक पद अवधिलब्धि से युक्त जीव का ग्रहण न करने के लिये दिया गया है। क्योंकि अवधिलब्धि से युक्त जीव के बहुत अनुभाग क्षय को प्राप्त होता है । इसलिये उसके उत्कृष्ट अनुभाग नहीं पाया जाता
___ इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा का स्वामित्व जानना चाहिये। अब जघन्य अनुभाग उदीरणा के स्वामित्व का प्रतिपादन करते हैं -
सुयकेवलिणो मइसुय अचक्खु चक्खूणुदीरणां मंदा।
विपुल परमोहिगाणं मणणाणोहीदुगस्सावि॥६९॥ शब्दार्थ – सुयकेवलिणो - श्रुतके वली के, मइसुय - मति-श्रुत ज्ञानावरण, अचक्खुचक्खूणुदीरणा - अचक्षु-चक्षु दर्शनावरण की उदीरणा, मंदा – जघन्य, विपुल - विपुलमति, परमोहिगाणं - परमावधि वाले के, मणणाण - मनःपर्यायज्ञानावरण, ओहि दुगस्सावि – अवधिद्विक आवरण की।
गाथार्थ - मतिश्रुत ज्ञानावरण चक्षु-अचक्षु दर्शनावरण की मंद (जघन्य) अनुभाग उदीरणा श्रुतकेवली के होती है । विपुलमति और परमावधिवंत अनुक्रम से मनःपर्यायज्ञानावरण और अवधिद्विक आवरणों की जघन्य अनुभाग उदीरणा करते हैं।
विशेषार्थ - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण इन चार प्रकृतियों की मंद अर्थात् जघन्य उदीरणा क्षीणकषायगुणस्थान की समयाधिक आवलिका काल शेष रहने की स्थिति में वर्तमान पूर्वधर श्रुतकेवली के होती है। विपुलमति मनःपर्यायज्ञानी क्षीणकषायी, समयाधिक आवलिका काल शेष स्थिति में वर्तमान क्षपक के मनःपर्यायज्ञानावरण की जघन्य अनुभागउदीरणा होती है तथा परमावधि से युक्त क्षीणकषायी समयाधिक आवलिका शेष स्थिति में वर्तमान क्षपक के अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण की जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है तथा –