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[ कर्मप्रकृति
पंचेन्द्रिय जीव मृदु लघु स्पर्श की तथा अति संक्लिष्ट अनाहारक मिथ्यादृष्टि बीस प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग- उदीरणा करता है ।
विशेषार्थ - बारह वर्ष की आयु वाला और बारहवें वर्ष में वर्तमान द्वीन्द्रिय जीव सेवार्तसंहनन की जघन्य अनुभाग- उदीरणा करता है तथा अपनी भूमिका के अनुसार अति विशुद्ध अनाहारक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मृदु और लघु स्पर्श की जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है और तैजससप्तक, मृदु लघु स्पर्श को छोड़ कर शुभ वर्णादि नवक अगुरुलघु, स्थिर, शुभ और निर्माण इन बीस प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग उदीरणा का स्वामी संक्लिष्ट परिणामी अपान्तराल गति में वर्तमान अनाहारक मिथ्यादृष्टि जीव जानना चाहिये । तथा
शब्दार्थ
इयरं - इतर, हुंडेण अल्पायुष्क के, य - योग्य जीव के ।
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परघाओ ।
पत्तेगमुरालसमं इयरं हुंडेण तस्स अप्पाउस य आयावज्जोयाणमवि तज्जोगो ॥ ७७॥
समान,
पत्तेग - प्रत्येकनाम की, उराल औदारिकशरीर के, समं - हुंडक की, तस्स उसके, परघाओ पराघात की, अप्पाउस्स और, आया - वुज्जोयाणमवि आतप और उद्योत की भी, तज्जोगो - उसके
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गाथार्थ प्रत्येकनाम की औदारिकशरीर के समान और उससे इतर अर्थात् साधारण नाम की हुंडक के समान जानना । पराघात की अल्पायुष्क जीव के और आतप उद्योत की उसके योग्य एकेन्द्रिय जीव के जघन्य अनुभाग- उदीरणा होती है ।
विशेषार्थ – प्रत्येकनामकर्म की जघन्य अनुभाग- उदीरणा औदारिकशरीर के समान जानना चाहिये। अर्थात् औदारिकशरीर के समान प्रत्येक नामकर्म का भी भव के प्रथम समय में वर्तमान सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव जघन्य अनुभाग का उदीरक होता है, तथा हुंडकसंस्थान के समान तस्स-उसको, प्रत्येक नाम के इतर - प्रतिपक्षी अर्थात् साधारण नाम की जघन्य अनुभाग उदीरणा का स्वामी जानना चाहिये। जिस का आशय यह है कि जिस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय आहारक जीव के भव के प्रथम समय
हुंडक संस्थान नामकर्म की जघन्य अनुभाग उदीरणा का स्वामित्व पहले कहा गया है, उसी प्रकार साधारण नामकर्म का भी कहना चाहिये तथा शीघ्र पर्याप्त हुए अल्पायुष्क अतिसंक्लिष्ट पर्याप्ति के चरम समय में वर्तमान उसी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव के पराघात नामकर्म की भी जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है।
उसके योग्य शरीरपर्याप्ति पर्याप्त हो कर प्रथम समय में वर्तमान संक्लिष्ट परिणामी पृथ्वीकायिक जीव आतप और उद्योत नामकर्म के जघन्य अनुभाग का उदीरक होता है । तथा