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[ कर्मप्रकृति सूक्ष्म एकेन्द्रिय वायुकायिक जीव जघन्य अनुभाग उदीरक होता है तथा वैक्रियषट्क अर्थात् वैक्रियशरीर, वैक्रियसंघात और वैक्रियबंधनचतुष्क रूप वैक्रियषट्क का बादर पर्याप्त अल्प आयु वाला वायुकायिक जीव जघन्य अनुभाग उदीरक होता है तथा –
बेइंदिय अप्पाउग निरय चिरठिई असण्णिणो वा वि।
अंगोवंगाणाहार गाए जइणोऽप्पकालम्मि॥७४॥ शब्दार्थ – बेइंदिय - द्वीन्द्रिय, अप्पाउग – अल्पायुष्क, निरय - नारक, चिरठिई - दीर्घ स्थिति, असण्णिणो - असंज्ञी के, वावि - और, अंगोवंगाण - अंगोपांग की, आहारगाएंआहारक की, जइणो – यति के, अप्पकालम्मि – अल्प काल में।
गाथार्थ – औदारिक अंगोपांग और वैक्रिय अंगोपांग की जघन्य अनुभाग उदीरणा अनुक्रम से अल्पायु द्वीन्द्रिय जीव और चिर स्थिति वाले नारकों में उत्पन्न होने वाला असंज्ञी जीव करता है। आहारक अंगोपांग की अल्प काल में विद्यमान यति के जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है।
विशेषार्थ - औदारिक अंगोपांग और वैक्रिय अंगोपांग इन दो अंगोपांग नामकर्मों की यथाक्रम से अल्पायु वाला द्वीन्द्रिय जीव तथा असंज्ञी होता हुआ जो दीर्घस्थिति वाला नारक हुआ, वह उनके जघन्य अनुभाग का उदीरक होता है। इसका यह भावार्थ है कि -
अल्पायु वाला द्वीन्द्रिय जीव औदारिक अंगोपांग नामकर्म के उदय के प्रथम समय में उसके जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव, जिसने पहले वैक्रियशरीर की उद्वलना की है वह वैक्रिय अंगोपांग को अल्पकाल तक बांधकर अपनी भूमिका के अनुसार दीर्घ स्थिति वाला नारकी हुआ। उसके वैक्रिय अंगोपांग नामकर्म के उदय के प्रथम समय में वर्तमान होने पर जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है।
आहरगाएं' अर्थात् आहारकशरीर। यहां आहारक शरीर के ग्रहण से आहारकबंधनचतुष्क आहारक अंगोपांग और संघात भी ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये आहारकसप्तक की जघन्य उदीरणा आहारकशरीर को उत्पन्न करने वाले संक्लिष्ट साधु के अल्प काल में अर्थात् प्रथम समय में होती है, यथा -
अमणो चउरंस सुभाणऽ प्पाऊसगचिरट्टिई सेसे। . संघयणाण य मणुओ हुंडुवघायाणमवि सुहुमो॥ ७५॥ १. लब्धि पर्याप्त जीव। २. प्राकृत होने से यहां स्त्रीलिंग का निर्देश है। ३. गाथा में 'सेसे' यह सप्तमी विभक्ति का प्रयोग षष्ठी विभक्ति के आशय में किया गया है तथा जाति की अपेक्षा एकवचन
का प्रयोग है।