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उदीरणाकरण ]
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उसके सम्यगमिथ्यात्व की जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि वाला) जीव सम्यक्त्व और संयम को एक साथ प्राप्त नहीं करता है क्योंकि उसके उस प्रकार की विशुद्धि का अभाव होता है। अतः वह केवल सम्यक्त्व को ही प्राप्त कर सकता है, इसी कारण उसके लिये ही 'एव' पद दिया है।
चारों आयु कर्मों की जघन्य अनुभाग-उदीरणा अपनी अपनी जघन्य स्थिति में वर्तमान जीव करते हैं। उनमें से तीन आयुकर्मों की जघन्य स्थिति का बंध संक्लेश से ही होता है। इस कारण जघन्य अनुभाग भी वहीं पाया जाता है तथा नरकायु का जघन्य स्थिति बंध विशुद्धि से होता है। इसलिये नरकायु का जघन्य अनुभाग भी वहीं पाया जाता है। ऐसा होने पर देव, मनुष्य और तिर्यंच आयु कर्मों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करने वाले अतिसंक्लेश वाले देव, मनुष्य और तिर्यंच होते हैं और नरकायु की जघन्य अनुभाग की उदीरणा को करने वाला अति विशुद्ध नारकी होता है। तथा -
पोग्गलविवागियाणं भवाइसमये विसेसमवि चासिं।.
आइतणूणं दोण्हं सुहुमो वाऊ य अप्पाऊ॥७३॥ शब्दार्थ – पोग्गलविवागियाणं - पुद्गलविपाकिनी प्रकृतियों की, भवाइसमये – भव के आदि (प्रथम) समय में, विसेसमवि - विशेष भी, चासिं - और इनका, आइतणूणं - आदि के दो शरीरों की, दोण्हं - दो, सुहुमो - सूक्ष्म, वाऊ – वायुकायिक, य - और, अप्पाऊ - अल्पायु।
____ गाथार्थ – पुद्गलविपाकिनी प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग-उदीरणा भव के आदि समय में होती है । इनके बारे में कुछ विशेष भी है, यथा - आदि के दो शरीरों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा अल्पायु सूक्ष्म और बादर वायुकायिक जीव करते हैं।
- विशेषार्थ - सभी पुद्गलविपाकिनी प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग-उदीरणा भव के आदि समय में अर्थात् भव धारण करने के प्रथम समय में होती है, यह सामान्य से कहा है। लेकिन अमुक प्रकृति का अमुक जीव उदीरक होता है, इस प्रकार का विशेष कथन भी इन प्रकृतियों के लिये कहा जायेगा। अतः इस विशेष बात को बतलाने के लिये आचार्य ने गाथा में 'आइतपूर्ण' इत्यादि वाक्य दिया है। जिसका अर्थ यह है कि आदि के जो दो औदारिक और वैक्रिय शरीर हैं, उनकी यथाक्रम से जघन्य अनुभाग-उदीरणा अल्प आयु वाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय (और बादर) वायुकायिक जीव करता है। यहां शरीर के ग्रहण से बंधन और संघात भी गृहीत जानना चाहिये। इसलिये इन सबका यह अर्थ होता है कि औदारिकशरीर, औदारिकसंघात और औदारिकबंधनचतुष्क रूप औदारिकषट्क का अपर्याप्त