________________
उदीरणाकरण ]
[ २४१
शब्दार्थ – अमणो – अमनस्क, चउरंस - समचतुरस्त्र, सुभाण - शुभ (वज्रऋषभनाराच संहनन), अप्पाऊसग – अल्प आयुष्क, चिरट्टिई - दीर्घायु, सेसे - शेष, संघयणाण – संहननों की, य - और, मणुओ – मनुष्य, हुंडुवघायाणं - हुंडक संस्थान, उपघात, अवि – भी, सुहुमोसूक्ष्म एकेन्द्रिय।
गाथार्थ – अल्पआयुष्क, अमनस्क जीव समचतुरस्रसंस्थान और शुभ संहनन (वज्रऋषभ नाराच संहनन) की तथा शेष मध्यवर्ती चार संस्थानों की भी स्वायुष्क की दीर्घस्थिति में वर्तमान अमनस्क जीव जघन्य अनुभाग-उदीरणा करता है । मध्यवर्ती चार संहननों की मनुष्य और हुंडकसंस्थान व उपघात की सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव जघन्य अनुभाग-उदीरणा करते हैं।
विशेषार्थ – अल्पायु, अतिसंक्लिष्ट प्रथम समय में तद्भवस्थ आहारक' असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव समचतुरस्र संस्थान और वज्रऋषभनाराच संहनन के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है। यहां अल्पायु पद का ग्रहण संक्लेश की अधिकता के लिये किया गया है तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही अपनी आयु की उत्कृष्ट स्थिति में वर्तमान और भव के प्रथम समय में आहारक हो कर हुंडक संस्थान रहित शेष मध्यवर्ती चारों संस्थानों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है।
पूर्वकोटि की आयु वाला और अपने भव के प्रथम समय में वर्तमान आहारक मनुष्य सेवार्त और वज्रऋषभनाराच संहनन को छोड़ कर शेष संहननों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है। यहां दीर्घ आयु (चिरट्ठिई) पद का ग्रहण विशुद्धि की अधिकता के लिये किया गया है। तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा प्रायः मनुष्य अल्प बल वाले होते हैं, इसलिये मनुष्य पद का ग्रहण किया गया है।
सुदीर्घ आयुस्थिति वाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय आहारक जीव भव के प्रथम समय में हुंडकसंस्थान और उपघात नामकर्म के जघन्य अनुभाग का उदीरक होता है। तथा –
सेवट्टस्स बिइंदिय बारसवासस्स मउयलहुगाणं।
सन्नि विसुद्धाणाहार-गस्स वीसा अईकिलिटे ॥ ७६॥ शब्दार्थ – सेवट्टस्स - सेवा संहनन की, बिइंदिय - द्वीन्द्रिय, बारसवासस्स – बारह वर्ष का, मउयलहुगाणं - मृदु लघु, स्पर्श की, सन्नि – संज्ञी, विसुद्ध – विशुद्ध, अणाहारगस्स - अनाहारक के, वीसा - बीस, अईकिलिटे - अतिसंक्लिष्ट ।।
गाथार्थ – बारह वर्ष की आयु वाला द्वीन्द्रिय जीव सेवार्तसंहनन की विशुद्ध अनाहारक संज्ञी १. यहां 'आहारक' से आहारक शरीरधारी का अर्थ न लेकर कर्मों का आहरण करने वाला अर्थात् सकर्मा जीव यह आशय समझना चाहिये।