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उदीरणाकरण ]
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आनुपूर्वियों के अपनी अपनी गति के तीसरे समय में वर्तमान जीव उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा करने वाले कहे गये हैं।
विशेषार्थ – उत्तरवैक्रियशरीर में वर्तमान सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त और सर्व विशुद्ध यतिसंयत उद्योत नाम की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के स्वामी हैं।
उत्कृष्ट स्थिति में वर्तमान सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त और सर्व विशुद्ध खर पृथ्वीकायिक अर्थात् बादर पृथ्वीकायिक जीव आतप नामकर्म की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के स्वामी हैं।
____ 'नियगगईणं' इत्यादि अर्थात् अपनी अपनी गति के तीसरे समय में वर्तमान विशुद्ध परिणामी मनुष्य और देव क्रमशः मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी के उत्कृष्ट अनुभाग के उदीरक होते हैं तथा संक्लिष्ट परिणामी नारक और तिर्यंच क्रमशः नरकानुपूर्वी और तिर्यंचानुपूर्वी के उत्कृष्ट अनुभाग के उदीरक हैं तथा -
जोगंते सेसाणं सुभाणमियरासि चउसु वि गईसु।
पज्जत्तुक्कडमिच्छ-स्सोहीणमणोहिलद्धिस्स॥ ६८॥ शब्दार्थ – जोगंते - सयोगी गुणस्थान के अंत में, सेसाणं - शेष, सुभाणं - शुभ प्रकृतियों की, इयरासिं - इतरों की (अशुभ प्रकृतियों की) चउसु - चारों, वि - भी, गईसु - गतियों में, पजत्तुक्कड - पर्याप्त उत्कृष्ट, मिच्छस्स – मिथ्यात्वी की, ओहीणं - अवधिद्विक की, अणोहिलद्धिस्स - अवधिलब्धि से रहित जीव के।
गाथार्थ – शेष शुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सयोगी के अंतिम समय में होती है और इतर अर्थात् अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा चारों गतियों में वर्तमान पर्याप्त और उत्कृष्ट संक्लेशी मिथ्यादृष्टि के होती है । अवधिद्विक की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अवधिलब्धि रहित जीव के होती है।
_ विशेषार्थ – 'जोगते' अर्थात् सयोगीकेवलीगुणस्थानवर्ती के सर्व अपवर्तनारूप चरम समय में वर्तमान जिन भगवान् के ऊपर कही गई प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष जो तैजससप्तक मृदु, लघु, स्पर्शों को छोड़कर शुभ वर्णदि नवक, अगुरुलघु, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और तीर्थंकर नाम इन पच्चीस शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा होती है।
___इयरासि' अर्थात् जो शुभ से इतर हैं तथा पूर्व में कही जा चुकी हैं, उनसे शेष रही ऐसी मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, मन:पर्यायज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, कर्कश और गुरू स्पर्श को छोड़कर अशुभ वर्णदि सप्तक, अस्थिर और अशुभ नाम रूप